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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 189 स्वीकार करनेवाला साधक न स्वयं शरीर की सेवा करता है, न दूसरों से सेवा करवाता है। वह शरीर के प्रति पूर्णतः ममत्व का त्याग करता है। किसी के द्वारा शरीर को गन्ध-विलेपन, आदि लगाने पर या देह को काट देने पर भी मुनि किसी प्रकार से प्रतिक्रिया नहीं करता है। वह शरीर को जड़वत् छोड़ देता है, क्योंकि वह हलन-चलन की प्रवृत्ति से रहित होता है।421 आचारांग में कहा गया है- "इस मरण को अंगीकार करने वाला साधक जीव-जन्तुरहित स्थण्डिलस्थल का सम्यक् निरीक्षण करके वहाँ अचेतनवत् स्थिर होकर पड़ा रहता है,"422 जबकि भगवतीआराधना में प्रायोपगमन-मरण पर चर्चा करते हुए कहा गया है कि- “जो व्यक्ति अपने शरीर को सम्यक् रूप से कृश करता है, अर्थात् उसका अस्थि-चर्ममात्र ही शेष रह जाता है, वही प्रायोपगमनमरण करता है। इस मरण में साधक तृण या घास के संथारे का प्रयोग नहीं करता है; क्योंकि इसमें व्यक्ति न तो स्वयं अपनी वैयावृत्य (सेवा) करता है और न ही दूसरों से करवाता है,423 परन्तु आचारांगसूत्र मे तृण अथवा घास के संस्तारण (संथारे) का प्रयोग करने का निर्देश दिया गया है। भक्तपरिज्ञामरण एवं इंगिनीमरण से भी यह मरण उत्कृष्ट है, संवेगरंगशाला में पादपोपगमनमरण के लिए जो विवेचन प्राप्त होता है, वही विवरण आराधनापताका+24 में भी उपलब्ध होता है। मरणविभक्ति या मरणसमाधि प्रकीर्णक में पादपोपगमनमरण का लक्षण इस प्रकार दिया गया है- निश्चल रूप मे बिना शारीरिक प्रतिक्रिया के जो मरण ग्रहण किया जाता है, वह पादपोपगमनमरण कहलाता है। यह मरण सनिहारिम और अनिहारिम-इस तरह दो प्रकार का होता है। जब उपसर्ग के कारण मरण होता है, तो उसे सनिहारिम एवं उपसर्ग बिना जो मरण होता है, उसे अनिहारिम कहा जाता है। मरणसमाधि-प्रकीर्णक में चिलातीपुत्र, स्कन्धक के शिष्यों, गजसुकुमाल, आदि के समाधिमरण के उल्लेख प्राप्त होते हैं तथा समाधिमरण की साधना का उत्कृष्ट निदर्शन भी मिलता है, जैसे- चिलातीपुत्र के शरीर को चींटियों के द्वारा छलनी कर दिया गया, किन्तु उन्होंने उनके प्रति मन से भी द्वेष नहीं किया।425 421 संवेगरंगशाला, गाथा ३५८२-३५६६. आचारांगसूत्र, १/८/८/२४८. 423 भगवतीआराधना, २०५८. आराधनापताका, गाथा ६२२. मरणसमाधि-प्रकीर्णक, गाथा ५२७,४२६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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