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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 187 उपसर्गों को सहन करे। देवकन्याएँ विषय-भोगादि के लिए प्रार्थना करें, तो अल्पमात्र भी क्षोभ को प्राप्त न हो तथा उनके द्वारा मान-सम्मानादि देने पर तथा अपनी ऋद्धि आदि को देखकर उन्हें अनुकूल उपसर्ग मानते हुए विस्मय को प्राप्त न करे।409 आगे यह भी कहा गया है कि साधक को शारीरिक-सुख अथवा दुःख होने पर भी ध्यान से विचलित नहीं होना चाहिए। कभी कोई बलपूर्वक साधक को सचित्त भूमि में ण्टक दे, तो उस समय भाव से शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा विचार कर वहीं पड़ा रहे और जब उपसर्ग शान्त हो जाएं, तो पुनः अचित्त भूमि पर आ जाए। साधक उस स्थिति में सूत्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना, धर्मकथा, आदि का त्याग करता है, किन्तु स्थिर मन से सूत्र-अर्थ का स्मरण कर सकता है। वहाँ उसे प्रतिलेखन, आदि क्रियाएँ भी नहीं करनी होती हैं, अतः मात्र ध्यान में लीन रहकर ही आत्मसाधना करना चाहिए। संवेगरंगशाला में इस मरण के सम्बन्ध में यह निरूपित किया गया है कि साधक को अन्य कार्यों में मौनव्रत धारण करना चाहिए। मात्र आचार्य आदि के प्रश्नों के उत्तर देना चाहिए तथा मनुष्य द्वारा प्रश्न पूछने पर धर्मकथा करना चाहिए। इस तरह संवेगरंगशाला में शास्त्रानुसार इंगिनीमरण का स्वरूप कहा गया है। __ इसी तरह इंगिनीमरण के स्वरूप का उल्लेख हमें आचारांगसूत्र, 411 समवायांगसूत्र, 412 भक्तपरिज्ञा, 413 भगवतीआराधना, 414 आराधनापताका, 415 प्रवचनसारोद्धार,416 आदि अनेक ग्रन्थों में भी मिलता है। ___ इंगिनीमरण भक्तपरिज्ञामरण से विशिष्ट मरण है। "भक्तपरिज्ञा में की जाने वाली साधना तो इसमें भी की जाती है, किन्तु इसमें साधक दूसरों से किसी प्रकार की सेवा न लेकर संथारा ग्रहण करने के अनन्तर स्वयं ही शरीर के आकुंचन, प्रसारण, उच्चार, आदि की क्रियाएँ करता है।" 417 आचार्य शीलांक आचारांग की टीका में इंगिनीमरण के स्वरूप का विवेचन इस रूप में करते हैं - 409 संवैगरंगशाला, गाथा ३५६५-३५७१. 410 संवेगरंगशाला, गाथा ३५७२-३५८१. 477 आचारांगसूत्र (प्रथम भाग), आत्मारामजी ८/६/२१७, पृ. ५६६. 412 समवायांगसूत्र, १७/६. 41 भक्तपरिज्ञाप्रकीर्णक, गाथा ६. 414 भगवतीआराधना, पृ. २०२६. 415 आराधनापताका, गाथा ६०८-६१६. 416 प्रवचनसारोद्धार. 41"आराधनापताका, गाथा ६०८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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