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________________ मरना । जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 175 १२. गृद्धस्पृष्टमरण - विशालकाय मृत पशु के शरीर में प्रवेश करके (ख) प्रशस्तमरण - समभावपूर्वक मरण प्राप्त करना प्रशस्तमरण कहलाता है, इसके दो भेद हैं342 : १. भक्तप्रत्याख्यानमरण भक्त - पान ( आहार - जल) का क्रम से त्याग करते हुए समाधिपूर्वक प्राणत्याग करने को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। इस मरण में व्यक्ति दूसरों द्वारा की गई वैयावृत्य को स्वीकार करने के साथ-साथ स्वयं भी अपने शरीर की देखभाल करता है। २. प्रायोपगमनमरण - कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट पड़े रहकर प्राण त्याग करने को प्रायोपगमनमरण कहते हैं। इस मरण को स्वीकार करनेवाला व्यक्ति न तो स्वयं अपनी वैयावृत्य ( सेवा शुश्रूषा) करता है और न किसी अन्य से करवाता है । भक्तप्रत्याख्यानमरण एवं प्रायोपगमनमरण दोनों ही प्रकार के मरण सर्वमरणों में उत्तम, अर्थात् श्रेष्ठ माने जाते हैं। इनके निहारिम और अनिहारिम जैसे दो उपविभाग भी किए गए हैं। निहारिममरण में मृत शरीर को मरणस्थल से बाहर ले जाना या हटा देना होता है। अनिहारिममरण, स्थान से मृत शरीर को बाहर नहीं लाना, उसे वहीं पड़ा रहने देना है, ताकि वह वहीं पशु-पक्षियों का भक्ष्य बन जाए। 343 मरण के सत्तरह प्रकार : 342 संवेगरंगशाला के रचनाकार जिनचन्द्रसूरि ने मरणविभक्ति नामक ग्यारहवें द्वार में इस प्रकार कहा है कि सर्व का त्याग मृत्यु से ही सम्भव हो सकता है, इसलिए मैं मरणविभक्ति द्वार को कहता हूँ। इसमें मरण के सत्तरह प्रकारों का उल्लेख किया गया है, वे ये हैं - १. आवीचिमरण ४. बलायमरण ७. तद्भवमरण Jain Education International २. अवधिमरण ५ वशार्तमरण ८. बालमरण (अ) व्याख्याप्रज्ञप्ति - २/१/२७, (ब) स्थानांग - २ / ४/४१४. 343 (अ) व्याख्याप्रज्ञप्ति २/१/२८, (ब) स्थानांगसूत्र २/४/४१५ - ३. आत्यान्तिक (अन्तिम) मरण ६. अन्तःशल्य (सशल्य) मरण ६. पण्डितमरण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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