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172 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
वस्तुतः, जिनेश्वरकथित वचनों में जो श्रद्धा नहीं रखते हैं, वे जीव अनन्त बार जन्म-मरण करने के बाद भी लेशमात्र भी निर्वेद गुण को प्राप्त नहीं करते हैं।334
साथ ही, संवेगरंगशाला में रचनाकार ने बालमरण के परिणाम का संक्षेप में इस प्रकार से उल्लेख किया है कि यह संसार भंयकर दुर्गम अटवी के समान है, जिसमें दुःख से पीड़ित यह जीव बालमरण से मरते हुए अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है। जन्म, जरा, मरणरूपी इस चक्र में परिभ्रमण करते हुए अत्यधिक थक जाने से वह पार को प्राप्त नहीं होता है। जिस प्रकार रहट में बांधा हुआ बैल दिन-रात घूमता ही रहता है, उसी प्रकार बालमरण प्राप्त करने वाले जीव भी जन्म-मरण करते रहते हैं। संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार के अन्त में यह कहा गया है कि बालमरण के भयंकर स्वरूप को जानकर धीर पुरुषों को पण्डितमरण स्वीकार करना चाहिए।
जन्म और मरण-ये दो ऐसे विषय हैं, जिन पर मनुष्य अनादिकाल से चिन्तन करता आ रहा है। विभिन्न जैन-ग्रन्थों में भी मृत्यु के स्वरूप की चर्चा करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। यहाँ हम कुछ जैन ग्रन्थों के आधार पर मरण के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करेंगे।
उत्तराध्ययन में मरण के दो प्रकारों का उल्लेख मिलता है। वे दो प्रकार हैं:- १. अकाममरण और २. सकाममरण।
१. अकाममरण :- अज्ञानवश विषय-वासनाओं एवं भोगों में आसक्त रहना, धर्म-मार्ग का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करना तथा मिथ्या जगत् को सत्य समझकर हमेशा मृत्यु के भय से भयभीत रहना, आदि गुण बाल जीव के हैं। इन जीवों के मरण को ही अकाममरण अथवा बालमरण कहा गया है। बाल शब्द का अर्थ मूर्ख, मूढ़, आदि होता है। मृत्यु की शाश्वत सत्यता को जानते हुए भी मृत्यु के उपस्थित होने पर उसे अस्वीकार करना ही बालमरण (अकाममरण) है। यहाँ अकाम शब्द उद्देश्यहीन मरण का बोधक माना गया है।
२. सकाममरण :- सकाम शब्द का अर्थ होता है-कामनासहित, किन्तु यहाँ सकाम का अर्थ उद्देश्यपूर्वक या सप्रयोजन है। इसमें व्यक्ति अन्त समय में प्रमादरहित समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करता है, इसलिए इसे सकाममरण, अर्थात् सार्थकमरण कहा गया है। इसमें उसकी आत्मा जाग्रत एवं सजग रहती है।
334 संवेगरंगशाला, गाथा ३६०५-३६११. 335 संवेगरंगशाला, गाथा ३६१२-३६१७
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