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________________ मरण के पाँच प्रकार : संवेगरंगशाला के रचयिता जिनचन्द्रसूरि ने मरणविभक्ति नामक ग्यारहवें द्वार में मरण के प्रकारों का अनेक दृष्टियों से उल्लेख करने के पश्चात् बारहवें द्वार में मरण के स्वरूप की चर्चा की है। इसमें सर्वप्रथम रचनाकार पण्डितमरण का स्वरूप बताते हुए लिखता है कि यह दुःखों के समूहरूप लताओं का नाश करने के लिए एक तीक्ष्ण धारवाली कुल्हाड़ी के समान है। इसके विपरीत जन्म-मरण और दुःखों की परम्परा को बढ़ानेवाले मरण के वीतराग भगवान् ने बालमरण कहा है। पुनः, इन दोनों के पाँच उपप्रकार बतलाए हैं : १. पण्डित - पण्डितमरण २. पण्डितमरण ३. बालपण्डितमरण ४. बालमरण और ५. बाल- बालमरण । 332 इन पाँच प्रकार के मरणों में पहला मरण जिनेश्वर देवों का दूसरा मरण सर्वविरतिधर साधुओं का, तीसरा मरण देशविरति वालों का, चौथा मरण अविरतसम्यग्दृष्टियों का और पाँचवाँ मरण मिथ्यादृष्टियों का होता है। इसके अतिरिक्त अन्य आचार्यों ने इनका विभाजन दूसरी तरह से करते हुए यह भी बताया है कि पाँच प्रकार के मरण में प्रथम तीन पण्डितमरण और अन्तिम दो बालमरण हैं। पहले तीनों मरण से मरनेवाले मुनियों को सम्यग्दृष्टि- अप्रमत्त, स्वाश्रयी और अप्रतिबद्धविहारी कहा गया तथा दूसरे दोनों मरण से मरनेवालों को मिथ्यादृष्टि और प्रमत्त कहा गया है । 333 जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 171 संवेगरंगशाला में आगे ग्रन्थकार ने जिनेश्वर देवों के वचनों पर श्रद्धा रखने वाले एवं नहीं रखने वाले जीवों का वर्णन करते हुए इस प्रकार कहा हैसम्यक्त्व उपार्जन करनेवाला जीव यदि मृत्यु के समय असंयमी हो जाता है, तो भी जिनाज्ञा के अनुसार आचरण करने से अल्प संसारी होता है, किन्तु जो जिन - वचनों पर श्रद्धा रखते हुए आचरण करता है, वह निश्चय से आराधक होता है। जिनेश्वर कथित वचनों पर श्रद्धा नहीं रखने वाले अनेक जीव भूतकाल में अनन्त बार बालमरण को प्राप्त हुए तथा फिर भी ज्ञानरहित एवं विवेकशून्य इन जीवों को इन अनन्त मरणों से लेशमात्र भी गुण प्राप्त नहीं हुए। 332 333 संवेगरंगशाला, गाथा ३५६७-३६००. संवेगरंगशाला, गाथा ३६०१-३६०७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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