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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 149
है, अतः यह तो कल्याणकारी मित्र है, ऐसी निराकांक्ष एवं समभावपूर्वक मृत्यु की प्राप्ति को उत्तमार्थ, मृत्युमहोत्सव, समाधिमरण, आदि कहा जाता है।265
तत्वार्थवार्त्तिक में कहा गया है कि मरण उत्तरपर्याय की प्राप्ति के साथ पूर्वपर्याय का नाश है, अतः मरण को सुधारने के लिए जीवन के अन्तिम क्षण में समाधिमरण लिया जाता है, जिससे कषायों के आवेग उपशमित या क्षय होकर जन्म-मरण का प्रवाह समाप्त हो जाता है।266
व्रत, नियम, तप, संथम, आदि का पालन करते हुए जीवन की अन्तिम सन्ध्या में शान्तिपूर्वक जो मृत्यु की प्राप्ति होती है, वही समाधिमरण है।
डॉ. मोहनलाल मेहता के अनुसार जीवन के अन्तिम क्षणों में आहारादि का त्याग करके समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करना समाधिमरण कहलाता है। वृद्धावस्था, अथवा रूग्णता के अतिरिक्त भी जब आकस्मिक रूप में मृत्यु अपरिहार्य बन गई हो, तो निर्विकार चित्तवृत्ति से देह का त्याग करना ही समाधिमरण है।267
समाधिमरण के स्वरूप पर की गई उपर्युक्त चर्चाओं के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जब व्यक्ति का शरीर अपने आवश्यक कार्यों में अक्षम हो जाए, अत्यधिक वृद्धावस्था के कारण शरीर कांपने लगे, असाध्य रोग हो जाएं, तथा कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएं, जिसके कारण मृत्यु जीवन की देहली पर दस्तक देने लगे, अथवा जब जीवन-रक्षण के लिए चारित्र से पतित होने वाली परिस्थितियाँ पैदा हो जाएँ, तो व्यक्ति को धर्मरक्षार्थ अपने शरीर का त्याग कर देना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति द्वारा किया गया देहत्याग उसके संयम और धर्म-दोनों की रक्षा करता है, और ऐसी परिस्थितियों में यही उपादेय है।
अतः, समाधिमरण हमारे समक्ष समभावपूर्वक देहत्याग की अवधारणा उपस्थित करता है। ऐसे देहत्याग को नैतिक-दृष्टि से तथा धार्मिक-दृष्टि से भी उचित माना गया है। समाधिमरण के पर्यायवाची नाम :
जैन-विचारकों ने समाधिमरण पर विस्तार से चर्चा की है और उसे भिन्न-भिन्न पर्यायवाची नामों से प्रकट किया है, उदाहरणस्वरूप-संलेखना, संथारा,
265 मृत्यु महोत्सव- ३,
तत्वार्थवार्तिक-७/२२ 26 जैन आचार, डॉ. मोहनलाल मेहता, प्र. १२०.
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