SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 148 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री आगम-ग्रन्थों में समाधिमरण ग्रहण करने की विधि सम्बन्धी उल्लेख भी मिलते हैं। मरणसमाधि 260 भगवती आराधना 261 आदि अनेक आराधनापताका 259 1 श्वेताम्बर-दिगम्बर-ग्रन्थों में समाधिमरण की विस्तृत चर्चा हुई है। " “रत्नकरण्डकश्रावकाचार" में आचार्य समन्तभद्र ने समाधिमरण के स्वरूप का जो विवेचन किया है, वह इस प्रकार है। उपसर्ग, दुर्भिक्ष, जरा, असाध्यरोग, अथवा प्राणघातक अनिवार्य परिस्थिति के उपस्थित हो जाने पर धर्म की रक्षा, अथवा समभाव की साधना के लिए जो देहत्याग किया जाता है, वह समाधिमरण कहलाता है। 11262 “ उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण को जीवन के सन्ध्याकाल में अनासक्तभाव से मृत्यु का समाधिमरण कहा जाता है । ' 11263 - समाधिमरण के साधक को इस लोक और परलोक दोनों का ही आकर्षण नहीं रहता है और वह बाहूयाभिमुखता को त्यागकर विशुद्ध भावदशा में आत्मा में ही रमण करता है। समाधिमरण विशुद्धचारित्र से युक्त आत्मा का आत्मा के स्व स्वभाव में रमण करने का नाम है। वह कर्त्ताभोक्ता का भाव त्यागकर ज्ञाता - दृष्टाभाव में जीने की साधना है । 258 समवायांगसूत्र १७ / १२१ 259 आराधनापताका, पइण्णयसुत्ताई भाग- २, पृ. ११६८ 260 मरणसमाधि पइण्णयसुत्ताई भाग - १, पृ. ६६-१५६, 261 भगवती आराधना, शिवचार्यकृत 262 263 264 Jain Education International " “ उपासकाध्ययन के अनुसार जब व्यक्ति को यह विदित हो जाता है कि उसका शरीर विनष्ट होने वाला है, तो उसे समभावपूर्वक शरीर का त्याग करने के लिए तत्पर बन जाना चाहिए।' 17264 रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ५/१, उत्तराध्ययनसूत्र - ७/२, ३२. उपासकाध्ययन-८११ पण्डितमरण कहा गया है। वरण करने की कला को ही सामान्य रूप से व्यक्ति देह के प्रति रागभाव और देह के विनाश के कारणों के प्रति भय एवं द्वेष का भाव होने से समभावपूर्वक मरण को प्राप्त नहीं कर पाता है, लेकिन जो ज्ञानी पुरुष हैं, वे अपनी मृत्यु से डरते नहीं हैं। उनके अनुसार समाधिमरण जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी पिंजरे से आत्मा को छुटकारा दिलाता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy