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________________ 150 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री पण्डितमरण, सकाममरण, अन्तःक्रिया, उत्तमार्थ, आदि सभी नाम समाधिमरण के ही पर्यायवाची है। इनके अर्थ को निम्न रूप में स्पष्ट किया जा सकता है - संलेखना : सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को क्षीण करना ही संलेखना है। संथारा : संथारा या संस्तारक, अर्थात् मृत्युशय्या पर आरूढ़ होना। संलेखना में मृत्यु के आगमन की प्रतीक्षा के लिए व्यक्ति जिस मृत्युशय्या को ग्रहण करता है, उसे संस्तारक या संथारा कहा जाता है। समाधिमरण : मन में उत्पन्न होनेवाले रागादि भावों को दूर करके अत्यन्त शान्त भाव से प्राणत्याग करना समाधिमरण है। पण्डितमरण : पण्डित शब्द का अर्थ यहाँ ज्ञानी, अथवा विद्वान है। ज्ञानी व्यक्ति उच्च आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए देह के प्रति निर्ममत्व का भाव रखता है। इसी भाव के वशीभूत होकर वह जो देहत्याग करता है, वह पण्डितमरण कहलाता है। सकाममरण : किसी आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति हेतु मृत्यु को स्वीकार करना सकाममरण है। संन्यासमरण : देह के प्रति ममत्व का त्याग करना ही संन्यासमरण है। अन्तःक्रिया, उत्तमार्थ, उपयुक्तमरण, आदि समाधिमरण के और भी नाम हैं, जिनका अर्थ आलोचनापूर्वक तथा क्षमापनापूर्वक मृत्यु को प्राप्त करना है। जैन-परम्परा में समाधिमरण का स्थान : जैनधर्म में वर्णित साधनाओं में समाधिमरण की साधना सबसे कठिन है। सामान्यतः, यह भी माना जाता है कि मृत्यु की वेला में व्यक्ति में जिस प्रकार की मनोदशा होती है, भावी जीवन की गति भी उसी तरह की होती है। यही कारण है कि जैन-आचार्यों ने समाधिमरण को आवश्यक माना है और उसे मुक्ति का द्वार कहा है। समाधिमरण करनेवाले के मन में बहुत ही उच्चकोटि के विचार उठते हैं तथा वह सोचता है कि यह शरीर मेरा नहीं है। मैं शरीर का नहीं हूँ। यह देह विकारी तथा क्षणभंगुर है और आत्मा शाश्वत और चैतन्यस्वरूप है। यह शरीर जन्म, जरा, मरण से युक्त है, रोग तथा आधि-व्याधि से घिरा हुआ है। दुःख और कष्ट देह को होता है, आत्मा को नहीं। संसार में सम्पत्ति या विपत्ति, संयोग या वियोग, जन्म या मरण, सुख या दुःख, मित्र या शत्रु की प्राप्ति, जो कुछ भी होता है, वह सभी पूर्व में किए गए पाप-पुण्य का फल है। मैं एक ज्ञायक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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