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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 145
होता है। ८. क्षुरकर्म से होने वाले पूर्वकर्म एवं पश्चात्कर्म के दोषों से बच जाता है। ६. शरीर के प्रति निर्ममत्व की साधना होती है। १०. शोभा की वृत्ति का त्याग होता है। ११. निर्विकारता का प्रकटन होता है और १२. आत्मा का दमन होता है। इस प्रकार संवेगरंगशाला में लोच के विविध गुणों का निरूपण है।
लोच नहीं करने के दोष :- लोच नहीं करने से जूं, लीख आदि उत्पन्न होते हैं। उससे मस्तक में पीड़ा होती है, मन में संक्लेश होता है तथा बार-बार खुजती करने से परिताप होता है। इस प्रकार लोच न करने से अनेक दोष उपत्र होते हैं।252
इस प्रकार साधु सम्बन्धी पाँच द्वारों में सामान्य लिंग का विवेचन कर साधु के विशेष लिंगों, अर्थात् उसकी विशेषता का वर्णन किया गया
संवेगरंगशाला में कहा गया है कि मुनि को ज्ञानादि गुणों से युक्त गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहना चाहिए। अपने छोटे-छोटे अपराधों की भी बार-बार निन्दा करना चाहिए एवं अपराध होने पर क्षमायाचना करना चाहिए। क्षपक मुनियों की वैराग्यपूर्ण कथाएँ सुनने को उत्सुक रहना चाहिए और निरतिचारपूर्वक संयम का पालन करना चाहिए। मूलगुणों की आराधना में विशेष प्रीति होना चाहिए। उसे पिण्डविशुद्धि आदि ग्रन्थों में वर्णित मुनि-आचार का सम्यक् रूप से पालन करते हुए अपने मोक्षरूपी लक्ष्य को प्राप्त करने में तत्पर रहना चाहिए।253
251 संवेगरंगशाला, गाथा १२२०-१२२१.
विगरंगशाला, गाथा १२२२. संवेगरंगशाला, गाथा १२२३-१२२६.
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