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144 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री कोमल और हलका होना चाहिए। ऐसे पाँच गुणों से युक्त रजोहरण का उपयोग किस समय किया जाता है, इसका निर्देश भी किया गया है। कहीं आने-जाने में, उठने-बैठने में, कोई वस्तु रखने या उठाने में और सोते समय करवट बदलने में, इत्यादि कार्यों में प्रमार्जन के लिए रजोहरण है। इस तरह यह दूसरा रजोहरण नामक द्वार कहा गया। 247 ये बातें मूलाचार एवं भगवती आराधना नामक दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में भी कही गई हैं।248
३. शरीर-शुश्रूषात्याग-द्वार :- संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में मनि को अपने शरीर की सेवा-शुश्रूषा, आदि नहीं करने का भी उल्लेख है। कहा गया है कि मुनि को शरीरमर्दन, स्नान, उद्वर्त, आदि का त्याग करना चाहिए। केश, रोम, नख, आदि को सुशोभित नहीं करना चाहिए। जो मुनि पसीने और मैल से युक्त, केशलोच से अशोभित मस्तक वाला, बड़े-बड़े नाखूनों से युक्त तथा शरीर की सेवा-शुश्रूषा से रहित हो, वह ब्रह्मचर्य का रक्षक कहलाता है। इस तरह यह तीसरा शरीर-शुश्रूषात्याग-द्वार कहा गया। १७
४. अचेल-द्वार :- संवेगरंगशाला में प्रस्तुत द्वार में पहले तो अचेल का अर्थ वस्त्ररहित बताकर अचेलता के गुणों एवं लाभों का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् यह कहा गया है कि जो मुनि पुराने मलिन प्रमाणोपेत और अल्पमूल्य वाले वस्त्र धारण करता है, उसे भी वस्त्ररहित, अर्थात् अचेल ही कहा गया है। ऐसे मुनि भी अपरिग्रही कहलाते हैं। अल्प-उपधि होने से अल्प प्रतिलेखन होती है, शरीर के सुखों का अनादर होता है, इत्यादि अनेक गुणों की प्राप्ति अचेलकत्व से होती है।250
५. केश-लोचद्वार :- संवेगरंगशाला के केश-लोचद्वार में लोच करने से प्राप्त होने वाले लाभ एवं लोच नहीं करने से उत्पन्न दोषों का दिग्दर्शन कराया गया है।
लोच से लाभ :- १. इससे महासात्त्विकता प्रकट होती है। २. जिनेश्वर भगवान् का बहुमान होता है। ३. दुःख अथवा पीड़ा सहन करने की शक्ति प्राप्त होती है। ४. नरकादि की भावना से निर्वेद होता है। ५. अपनी सहनशीलता की परीक्षा होती है। ६. धर्म पर श्रद्धा मजबूत होती है। ७. सुखशीलता का त्याग
247 संवेगरंगशाला, गाथा १२१३. 248 (अ) मूलाचार, ६/३, (ब) भगवतीआराधना, ७६-८६.
संवेगरंगशाला, गाथा,१२१४-१२१५. 250 विंगरंगशाला, गाथा १२१७-१२१८.
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