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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 143 १. मुहपत्ति, २. रजोहरण (ओघा) ३. शरीर-शुश्रूषा का त्याग, ४. वस्त्ररहित्व (अचेलत्व) और ५. केश का लोच 44 साधु संयम-जीवन में इन लिंगों को धारण करके ही धर्माराधना करते हैं। २. ये लिंग सम्यक् चारित्र अर्थात् मुनि-जीवन की निशानी या पहचान है। ३. इनको देखकर अन्य मनुष्यों का साधु के प्रति विश्वास एवं पूज्य भाव उत्पन्न होता है। ४. इनसे संयम में स्थिरता प्राप्त होती है। ५. मुनि-वेश को धारण करने से मुनि को प्रत्येक पल यह ध्यान बना रहता है कि मैंने गृहस्थ-जीवन का त्याग किया है तथा मुझे छःकाय जीवों की रक्षा करनी है। इस प्रकार वह प्रतिपल सजग एवं अप्रमत-अवस्था में रहकर धर्मसाधना करता है। अन्त में यह बताया गया है कि “उस वेश को साधु को किसी भी प्रकार से विशेष संस्कार किए बिना, जैसा मिला हो, वैसा ही संयम में बाधारूप न हो, इस तरह शरीर पर धारण करना चाहिए। “245 ___संवेगरंगशाला में साधु के मुहपत्ति आदि पाँच लिंगों का प्रयोजन और उनसे होने वाले लाभ का जो विवेचन उपलब्ध है, उसका यहाँ संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है: १. मुहपत्ति-द्वार :- संवेगरंगशाला में मुहपत्ति का अर्थ मुखवस्त्रिका बताकर उसका उपयोग किस प्रकार करना, इसका निरूपण किया गया है। मुखवस्त्रिका मस्तक तथा नाभि के ऊपर शरीर को प्रमार्जित करने के लिए है तथा मुख से बोलते तथा श्वासोच्छ्वास लेते समय जो वायु निकलती है, उनसे जीवों की रक्षा के लिए तथा धूल से ग्रस्त मुख को पोंछने के लिए है। इस तरह पहला मुहपत्ति नामक द्वार कहा गया है। २. रजोहरण-द्वार :- संवेगरंगशाला में रजोहरण, अर्थात् ओघा कैसा होना चाहिए, यह बताया गया है। रजोहरण - रज, पसीने से रहित, मृदु, 244 संवेगरंगशाला, गाथा १२०६. 245 संवेगरंगशाला, गाथा १२१० 246 संवेगरंगशाला, गाथा १२११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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