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142 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
जैनधर्म की मान्यता के अनुसार दुराचरण नहीं करने वाला व्यक्ति भी जब तक दुराचरण नहीं करने की प्रतिज्ञा नहीं लेता है, तब तक वह दुराचरण के दोष से मुक्त नहीं है। प्रतिज्ञा के अभाव में मात्र परिस्थितिगत विवशताओं के कारण जो दुराचार में प्रवृत्त नहीं है, वह वस्तुतः दुराचार के दोष से मुक्त नहीं है। वृद्ध वेश्या के पास कोई नहीं जाता, तो इतने मात्र से वह वेश्यावृत्त से निवृत्ति नहीं मानी जा सकती। कारागार में पड़ा हुआ चोर, चौर्य-कर्म से निवृत्त नहीं है, इसलिए प्रत्याख्यान दुराचार से निवृत्त होने के लिए किया जाने वाला दृढ़ संकल्प है। उसके अभाव में नैतिक-जीवन में प्रगति सभव नहीं है। 12 . साधु की दिनचर्याः
संवेगरंगशाला में कहा गया है कि जैन-आगमों में साधु की जो प्रतिदिन की चर्या कही गई है, उसे ही शिक्षा कहते हैं। जिस शिक्षा का जीवन में पालन किया जाता है, उसे ही आसेवन शिक्षा कहा जाता है। इसके अन्तर्गत निम्न क्रियाएँ आती हैं :
प्रतिलेखन, प्रमार्जन, भिक्षाचर्या, आलोचना, भोजन के पात्र धोना, स्थंडिल भूमि की शुद्धि, प्रतिक्रमण, चिन्तन-मनन, ध्यान और मिथ्याकार, आदि दस प्रकार की सामाचारी का पालन। सामाचारी का उल्लेख पूर्व में किया गया है। शास्त्रों का पठन-पाठन करें तथा तत्वों के स्वरूप का चिन्तन करें। प्रस्तुत कृति में यह कहा गया है कि जो साधु इन विशेष आचारों का समादर एवं पालन नहीं करता हो, वह मुनि मिथ्यात्वी है। इस तरह गुण-दोष की परीक्षा करके ग्रहण-शिक्षारूप ज्ञान को प्राप्त करके प्रतिक्षण आसेवन-शिक्षा के अनुसार उसका पालन करें। इस प्रकार सामान्यतया धर्म के सभी पक्षों को ध्यान में रखकर संवेगरंगशाला में मुनि-जीवन की क्रियाओं की शिक्षा दी गई है। जो इनसे युक्त होकर आराधना में दत्तचित्त हो, उस साधक का क्या कहना? पूर्व में वर्णित मुनि-आचार के दृढ़ अभ्यास बिना निशेष आराधना, अर्थात् समाधिमरण की साधना नहीं हो सकती
साधु के सामान्य लिंग:
प्रस्तुत कृति में साधु के लिंग के वर्णन में साधुता के पाँच लिंगों का प्रतिपादन कर उनके गुणों का उल्लेख किया गया है। वे निम्न हैं :
242 जैन बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ. ४०८. 243 संवेगरंगशाला, गाथा १५७६-१५८८.
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