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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 141
जैन-परम्परा में कायोत्सर्ग के लिए तीन प्रकार की मुद्राएँ बताई गई हैं।240 जिनमुद्रा में खड़े होकर ध्यान करना, सुखासन में बैठकर ध्यान करना एवं लेटकर ध्यान करना। कायोत्सर्ग करते समय १६ दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए। आचार्य भद्रबाहु आवश्यनियुक्ति में शुद्ध कायोत्सर्ग के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि चाहे कोई भक्ति-भाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई द्वेषवश वसूले को छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे उसी क्षण मृत्यु आ जाए, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, उक्त सब स्थितियों में समभाव रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध होता है। ६. प्रत्याख्यान :- मानव के मन में प्रतिपल अनन्त इच्छाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। अतः उन इच्छाओं को रोकना ही प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का सही अर्थ प्रवृत्ति को मर्यादित, अथवा सीमित करना है। साधना की पुष्टि के लिए साधक को प्रतिदिन किसी-न-किसी प्रकार का प्रत्याख्यान अवश्य करना चाहिए, इससे वस्तु के प्रति ममत्व तथा आसक्ति का भाव कम होता है। प्रत्याख्यान के दो रूप हैं :(१) द्रव्य-प्रत्याख्यान एवं (२) भाव-प्रत्याख्यान
प्रत्याख्यान
(१) द्रव्य-प्रत्याख्यान
(२) भाव-प्रत्याख्यान
अशुभ मानसिक
आहार सामग्री वस्त्र, परिग्रह आदि राग द्वेष कषाय प्रवृत्तियाँ आदि. इसी तरह प्रत्याख्यान के अन्य दो भेद भी कहे गए है:
प्रत्याख्यान
(१) मूलगुण प्रत्याख्यान
(२) उत्तरगुण प्रत्याख्यान
उपवास
आबिल एकासन
अहिंसा सत्य अचौर्य
ब्रह्मचर्य अपरिग्रह
उपवास
आयम्बिल
एकासन
240 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ. ४०४.
आवश्यकनियुक्ति १५४८, उद्धृत श्रमणसूत्र, पृ.-६६.
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