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140/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
५. यत्किचिन्मिथ्या-प्रतिक्रमण- सावधानीपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए भी प्रमाद, अथवा असावधानी से किसी भी प्रकार का असंयमरूप आचरण हो जाने पर तत्काल उस भूल को स्वीकार कर लेना और उसके सम्बन्ध में पश्चाताप
करना। 239
६. स्पप्नांतिक-प्रतिक्रमण- विकार-वासनारूप कुस्वप्न देखने पर उसके सम्बन्ध में पश्चाताप करना।
ये तिवेचना प्रमुखतः साधुओं की जीवनचर्या से संबंधित है, किन्तु गृहस्थ के लिए भी दैवसिक, आदि प्रतिक्रमण करने का विधान है।
साधकों की श्रेणी के आधार पर प्रतिक्रमण के दो भेद हैं - श्रमण-प्रतिक्रमण और श्रावक-प्रतिक्रमण। कालिक-आधार पर प्रतिक्रमण के पाँच भेद हैं:
१. दैवसिक-प्रतिक्रमण २. रात्रिक-प्रतिक्रमण ३. पाक्षिक-प्रतिक्रमण ४. चातुर्मासिक-प्रतिक्रमण और ५. सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण।
इस तरह भगवान महावीर के साधुओं को चाहे दोष लगे अथवा न लगे, किन्तु प्रतिक्रमण करना अनिवार्य होता है; जबकि पार्श्वनाथ के साधु पापाचरण होने पर ही उसकी आलोचना के रूप में प्रतिक्रमण कर लेते थे। इससे यह फलित होता है कि भगवान् महावीर के शासनकाल में उनके साधु प्रमादाचरण करने वाले होंगे, इसी सम्भावना को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में प्रतिक्रमण की अनिवार्यता पर बल दिया गया है। चाहे पापाचरण हुआ हो या न हुआ हो, फिर भी साधु को नियमित रूप से प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। ५. कायोत्सर्ग :- शरीर का त्याग करना ही कायोत्सर्ग-आवश्यक है, लेकिन जीवित रहते हुए शरीर का त्याग संभव नहीं है। यहाँ शरीर-त्याग का अर्थ हैशारीरिक चंचलता एवं देहासक्ति का त्याग। किसी सीमित समय के लिए शरीर के प्रति ममत्व का परित्याग कर शारीरिक क्रियाओं की चंचलता को समाप्त करने का जो प्रयास किया जाता है, वह कायोत्सर्ग है। जैन साधना में कायोत्सर्ग का महत्व बहुत अधिक है। प्रत्येक अनुष्ठान के पूर्व कायोत्सर्ग की परम्परा है। वस्तुतः, देहासक्ति को समाप्त करने के लिए कायोत्सर्ग आवश्यक है।
239 स्थानांगसूत्र - ६/५३८.
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