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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 139
अनुसार ही प्रत्येक कार्य करना साधक के लिए आवश्यक है, क्योंकि वन्दन करने से कर्मों की निर्जरा होती है। यदि विनीत शिष्य गुरु का विनय करता है तथा मन-वचन-काया से उनकी सेवा करता है, तो वह घातीकर्मों को नाश कर केवलज्ञान को प्राप्त करता है एवं इस तरह अन्त में मोक्षरूपी फल को प्राप्त करता है।
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उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार वन्दन करने वाला व्यक्ति विनय के द्वारा उच्च गोत्र, अबाधित-सौभाग्य एवं लोकप्रियता को प्राप्त करता है। वन्दन का मूल उद्देश्य अहंकार का विसर्जन करना एवं जीवन में विनय को स्थान देना है। विनय ही धर्म का आधार है ।
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भगवतीसूत्र के अनुसार वन्दन के फलस्वरूप गुरुजनों के सत्संग का लाभ होता है। सत्संग से शास्त्रश्रवण, शास्त्रश्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम, अनाश्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि की उपलब्धि हो जाती है। जैन - आचार्यों ने वन्दन के ३२ दोष बताए हैं। इनके अतिरिक्त भी स्वार्थभाव, आकांक्षा, भय, अनादर का भाव, उनके प्रति सम्मानपूर्वक वचनों का प्रयोग नहीं करना, उनकी आज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं करना तथा उनका सम्मान नहीं करना, आदि भी वन्दन के दोष हैं, अतः सम्पूर्ण दोषों से रहित वन्दन के लिए निर्दिष्ट अवसरों पर गुरु का वन्दन करना, यह साधक का आवश्यक कर्त्तव्य है ।
४. प्रतिक्रमण :- आचार्य हेमचन्द्र प्रतिक्रमण का निर्वचन करते हुए लिखते हैं कि शुभयोग से अशुभयोग की ओर गए हुए अपने-आपको पुनः शुभयोग में लौटा लाना प्रतिक्रमण है। 28 स्थानांगसूत्र में इन छः बातों के प्रतिक्रमण का निर्देश है:उच्चार - प्रतिक्रमण - मल, आदि का विसर्जन करने के बाद आने-जाने में हुई जीव - हिंसा का प्रतिक्रमण करना ।
१.
२.
प्रश्रवण-प्रतिक्रमण - पेशाब करने के बाद प्रतिक्रमण करना । इत्वर-प्रतिक्रमण- आकस्मिक रूप से किसी भी दोष के लगने
यावत्कथिक-प्रतिक्रमण- सम्पूर्ण जीवन के लिए पापनिवृत्त होना ।
३.
पर प्रतिक्रमण करना ।
४.
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उत्तराध्ययनसूत्र
१/४५.
237 भगवतीसूत्र - २/५/११२.
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योगशास्त्र स्वोपज्ञवृत्ति - ३.
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