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138 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री वह समत्व-योग की साधना के लिए साधना-पथ में प्रस्थित हुआ है। अपने निषेधात्मक रूप में सामायिक सावद्य-कार्यों, अर्थात् पाप-कार्यों से विरति है, तो अपने विधायक रूप में समत्वभाव की साधना है।234 २. चतुर्विंशतिस्तव :- चौबीस तीर्थंकरों या वीतराग देवों की स्तुति करना। सामायिक-आवश्यक के पश्चात् दूसरा आवश्यक स्तवन या स्तुति है। साधना दो प्रकार से होती है- आलम्बन एवं निरालम्बन। जब साधक मोक्ष-प्राप्ति हेतु साधना के लिए कदम बढाता है, तब सर्वप्रथम उसे किसी-न-किसी आलम्बन की आवश्यकता होती है, अतः साधक को अपने साधनाकाल में चौबीस तीर्थंकर की स्तुतिरूप द्वितीय आवश्यक का विधान किया गया है।
__सामान्यतः, व्यक्ति का ऐसा विचार होता है कि मेरे आराध्यदेव की कृपा से ही मेरी आराधना सफल हुई है, किन्तु उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें सूत्र में स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है कि स्तवन/स्तुति से, अर्थात् भगवद्भक्ति से पूर्व संचित कमों का क्षय होता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है, किन्तु जैन-दर्शन में भगवद्भक्ति के माध्यम से प्राप्त होने वाली मुक्ति या कर्मनिर्जरा परमात्मा की कृपा का परिणाम नहीं है, वरन् स्वयं के दृष्टिकोण की विशुद्धि का ही परिणाम है। 35
साधक स्तुति द्वारा वीतराग परमात्मा के गुणों का गुणगान करता है कि हे भगवन्! किसी जन्म में आप और मैं- दोनों एकसाथ खाते-पीते और खेलते थे। सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ देते थे। अपने दोनों में घनिष्ठ मित्रता थी। अपनी दोनों की आत्मा भी समान है, फिर भी आप कर्मरहित हो और मैं कर्म से जकड़ा हूँ, आप मोक्ष में विराजित हैं और मैं अज्ञान-दशा में पाप करता हुआ चारों गति में भटक रहा हूँ। इस तरह परमात्मा आपका अतीत और मेरा अतीत समान है, वर्तमान में अन्तर हो गया है। यदि मैं, आपके गुणों को याद करते हुए प्रयत्न करूं, तो मैं भी आपके समान बन सकता हूँ। मेरे विकार नष्ट हो सकते हैं
और भविष्य में भी दोनों की एकरूपता हो सकती है। ३. वन्दन :- साधक को अपनी साधना करने से पहले गुरु को वन्दन कर आज्ञा लेना अनिवार्य होता है। कहा भी गया है, गुरु बिना ज्ञान नहीं, अतः साधक को चतुर्विंशतिस्तव में साधना के आदर्श के रूप में तीर्थंकरों की उपासना के पश्चात् साधना के पथ-प्रदर्शक गुरु को वन्दन करने का विधान है। यही वन्दन तीसरा आवश्यक है। गुरु की आज्ञा को ही अपना मार्गदर्शक मानना एवं उनकी आज्ञा के
14 जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-२, पृ. ३६४. 235 उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१५.
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