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146/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
अध्याय - ३ समाधिमरण की पूर्वपीठिका एवं देह विसर्जन विधि
जैनदर्शन में समाधिमरण का स्वरूप :
जीवन क्या है और इसे सुखपूर्वक किस तरह जीना चाहिए? यह एक अहम प्रश्न है। आज विश्व में सुख के साधनों की पूर्ति हेतु अनेक वैज्ञानिक तकनीकों का विकास हुआ है और हो रहा है, फिर भी मनुष्य सुखी नहीं हो सका है। जीवन को कैसे सुखी बनाए? इसके लिए उसने अनेक प्रयत्न भी किए और विविध कलाओं का सृजन भी किया, फिर भी वह सुखी नहीं हुआ, क्योंकि ये सारे साधन बाहरी थे, जबकि सुख का स्रोत तो अन्तस् में निहित है। जब तक मनुष्य इच्छाओं और आकांक्षाओं से त्रस्त है और मृत्यु के भय से भयभीत है, वह सुखी नहीं हो सकता है। चाहे मनुष्य ने सुखमय जीवन जीने की कला सीखने का प्रयास भी किया हो, किन्तु जीवन के अन्तिम चरण, अर्थात् मृत्यु से अभी तक वह अपरिचित ही रहा है। उसने जीवन जीने की कला तो सीखी, लेकिन शान्तिपूर्वक मृत्यु को स्वीकार करने की कला नहीं सीखी। मरण का भय आज भी हमारे मन को उद्वेलित करता है, वह हमारे वर्तमान जीवन को भी अशान्त बनाता
कल्पना कीजिए, कोई मनुष्य अपना पूरा जीवन आनन्द में ही बिता रहा हो और उसे चिन्ता, शोक, विपत्ति, आदि का बोध भी नहीं हो, प्रत्येक दृष्टि से अपने में सुखी अनुभव करते हुए भी जब मौत सामने दिखाई देती है तो उसके हाथ, पैर कांपने लग जाते हैं, वह भयभीत होता है। मृत्यु का भय उसी प्रकार सम्पूर्ण जीवन के आनन्द को नष्ट कर देता है, जैसे - ओलावृष्टि उत्पन्न फसल को नष्ट कर देती है। जिसने सम्यक् रूप से मरना नहीं सीखा, वह जीवन के आनन्द से वंचित रहता है, इसलिए मानव को जीवन की कला के साथ-साथ मृत्यु की कला भी सीखना चाहिए। '
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