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________________ 136/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री ___ व्युत्सर्ग आभ्यन्तर बाह्य . कषाय व्युत्सर्ग -संसारव्युत्सर्ग कर्मव्युत्सर्ग कायोत्सर्ग गणव्युत्सर्ग उपधिव्युत्सर्ग भक्तपानव्युत्सर्ग शरीर के सामूहिक वस्त्र, पात्र भोजनादि ममत्व का जीवन का आदि का का त्याग। त्याग। त्याग। त्याग। क्रोध,मान, राग-द्वेष मन-वचनमाया और का त्याग। काया की लोभ का प्रवृत्तियों त्याग। का त्याग। ६. ध्यान :- संवेगरंगशाला में ध्यान सम्बन्ध विचार से विवेचन उपलब्ध होता है। 228 बारह प्रकार के तप में ध्यान तप का सबसे अधिक महत्व है। ध्यान चित्त की एकाग्रता को कहा गया है। साधक किसी एक ही विषय पर या आत्मा पर चित्त को केन्द्रित करता है, उसे ध्यान कहते हैं। जैन धर्मग्रन्थों में ध्यान के चार भेदों का उल्लेख मिलता है- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान। प्रथम दो ध्यानों का साधना में कोई स्थान नहीं होने से वे त्याज्य हैं, आध्यात्मिक-साधना की दृष्टि से अन्तिम दो, अर्थात् धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान महत्वपूर्ण हैं। धर्मध्यान चित्त-विशुद्धि का प्रारम्भिक अभ्यास है और शुक्लध्यान चित्त-विशुद्धि की अन्तिम अवस्था है। षडावश्यक : __ जैन-आचारदर्शन में आचरण के कुछ सामान्य नियम ऐसे हैं, जिनका परिपालन करना गृहस्थ और श्रमण- दोनों के लिए आवश्यक है। संवेगरंगशाला के प्रथम परिकर्म के नौवें उपद्वार के तीसरे प्रतिद्वार में हमें षडावश्यकों का मात्र नाम निर्देश ही प्राप्त होता है। 229 उन नियमों में आवश्यक कर्म को जैन-साधना का आधारभूत अंग माना गया है। जैन-श्रमण का जीवन साधना की अभिवृद्धि के लिए होता है। अनुयोगद्वार के अनुसार भी ये षडावश्यक गृहस्थ और श्रमण-दोनों 228 विंगरंगशाला, गाथा ६६२६-६६६४. 229 संवेगरंगशाला, गाथा २८८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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