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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 135 स्वभाव है, किन्तु गलती का निराकरण नहीं करने से उस गलती का सुधार सम्भव नहीं है। 224 २. विनय:- विनय धर्म का मूल है, प्रायश्चित्त भी बिना विनय के सम्भव नहीं है। विनीत शिष्य ही अपने पापों का प्रायश्चित्त करता है। संवेगरंगशाला के अनुसार जो जाति, कुल, विनय, ज्ञान से युक्त हो, वह ही प्रायश्चित्त ग्रहण करने के योग्य है। विनय के बिना सम्यक्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र की प्राप्ति असम्भव है। रांसार के कार्य में भी सर्वप्रथम शिष्टाचार की आवश्यकता होती है। विनय, अर्थात गुरुजनों की आज्ञा का पालन करना, उनके निर्देशानुसार जीवन जीना है। 25 ३. वैयावृत्य :- जैन-आगमों में सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य है। भिक्षु को दस प्रकार के साधकों की सेवा-शुश्रूषा करने का कर्तव्य होता है, वे इस प्रकार हैंआचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, गुरु, रोगी, वृद्धमुनि, सहपाठी, अपने भिक्षु-संघ का सदस्य, दीक्षा स्थापित और लोकसम्मानित भिक्षु- इन दस की सेवा करना वैयावृत्य तप है। इसके अतिरिक्त संघ की सेवा भी भिक्षु का कर्तव्य है। संवेगरंगशाला में क्षपकमुनि की अड़तालीस निर्यापकों द्वारा वैयावृत्य करने का उल्लेख मिलता है। 226 ४. स्वाध्याय :- स्वाध्याय, अर्थात् सद्ग्रन्थों का पठन, पाठन एवं मनन, आदि। स्वाध्याय के निम्न पाँच भेद हैं 27 : १. वाचना- सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना। २. पृच्छना - शंकाओं का निराकरण करने हेतु गुरुजनों से प्रश्नोत्तर करना। ३. अनुप्रेक्षा - अर्जित ज्ञान का चिन्तन करना। ४. परावर्तन - अर्जित ज्ञान के स्थायित्व के लिए उसे पुनः पुनः दोहराना। धर्मकथा - धार्मिक उपदेश देना। ५. व्युत्सर्ग :- व्युत्सर्ग शब्द वि+उत्सर्ग शब्द से बना है। इस प्रकार व्युत्सर्ग का अर्थ विशेष रूप से त्यागना या छोड़ना है। व्युत्सर्ग के निम्न दो भेद हैं : 224 संवेगरंगशाला, गाथा ४८७१-४६७८. संवेगरंगशाला, गाथा १५८६-१६१६/४६०१/५०३५-५०३७. 226 संवेगरंगशाला, गाथा ५३७५. 227 संवेगरंगशाला, गाथा, ५६०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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