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134 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
इहलोक और परलोक में आत्मा का अनर्थ या अहित करने वाले इन इन्द्रियों के विषय-सुखों का त्याग करना चाहिए। धीर पुरुषों ने सदैव ही दुःख के विपाकरूप इन विषयों को त्यागा है, इसलिए विषयरूपी भयंकर जंगल में निरंकुश होकर जहाँ-तहाँ परिभ्रमण करने वाले इन्द्रियरूपी हाथी को ज्ञानरूपी अंकुश से वश करना चाहिए। जिसमें इन्द्रियों के स्व-स्व विषयों को सुनकर, देखकर, सेवनकर, सूंघकर और स्पर्श करके भी व्यक्ति को रति या अरति नहीं होती, उसे ही इन्द्रिय-संलीनता - तप कहते हैं।
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(३) मन-संलीनता :
संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार का कहना है कि धैर्यवान् साधक मनरूपी हाथी को विवके, बुद्धि एवं संयमरूपी उत्तम उपायों द्वारा वश में करे, जिससे मोहजन्य कषायों पर विजय प्राप्त की जा सके। पाँच समिति से समित और तीन गुप्ति से गुप्त बना मुनि मनः संलीनता के द्वारा आत्महित में तत्पर बनता है। इसमें आगे यह कहा गया है कि संयमी जीव दीर्घकाल में जिन कर्मों की निर्जरा करते हैं, उन्हें संयमी साधक अन्तर्मुहूर्त में ही क्षीण कर देता है। *
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आभ्यन्तर तप के भेद :
आभ्यन्तर-तप बाह्य-तप से भी अधिक महत्वपूर्ण एवं उच्च है। बाह्य तप स्थूल होने से दिखाई देता है, जबकि आभ्यंतर - तप अन्तरंग एवं सूक्ष्म होने से मात्र अनुभव किया जाता है। ये तप बाहर से तपरूप में नहीं दिखाई देते हैं। आभ्यन्तर तप के भी छः भेद हैं :
१. प्रायश्चित्त :- अपने पापों का पश्चाताप करना, अशुभ आचरण के प्रति ग्लानि प्रकट करना, उन पापों को गुरु के समक्ष प्रकटकर दण्ड देने के लिए प्रार्थना करना एवं उनके द्वारा दिए गए दण्ड को स्वीकार करना प्रायश्चित्त - तप है। संवेगरंगशाला में कहा गया है कि जो साधक अपने समस्त दोषों को के गुरु समक्ष प्रकट कर प्रायश्चित्त ग्रहण करता है, उसको ही समाधिमरण के लिए की गई आराधना सार्थक होती है। जैसे- छोटा-सा तृण भी शरीर को पीड़ा देता है, वैसे ही छोटा-सा दोष भी असमाधि उत्पन्न करता है। गलती होना मानव का
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संवेगरंगशाला, गाथा ४०५७-४०६४. संवेगरंगशाला, गाथा ४०६५-६०६६.
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