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५. कायाक्लेश :- जैनागमों के अनुसार शरीर को विविध प्रकार से कष्ट देना कायाक्लेश है। इसमें अनेक प्रकार के आसनों के द्वारा कष्ट को सहन करने का एवं काया को निरोध करने का उल्लेख किया गया है। सूर्य की आतापना लेना, केशलोच करना, ठण्ड गर्मी आदि परीषहों को सहन करना, आदि कायाक्लेश-तप हैं। इससे जीवों के प्रति दया एवं करुणा के भाव पैदा होते है तथा परलोक में हितबुद्धि उत्पन्न होती है। नरक की वेदना का स्मरण करते हुए इस वेदना को सहन करने से संसार से वैराग्य उत्पन्न होता है। अन्त में, इसमें कायक्लेश को निर्वेद प्राप्त कराने में रसायनतुल्य कहा गया है।
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६.
संलीनता - तप :- संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने तीन प्रकार की संलीनता का विवेचन किया है १. वसति संलीनता २. इन्द्रिय-संलीनता और ३. मन-संलीनता ।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 133
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(१) वसति-संलीनता :
इस कृति में वसति संलीनता का वर्णन करते हुए कहा गया हैआराधक के लिए आराधना का स्थान चाहे आवास (घर) में हो, अथवा वृक्ष के नीचे, चाहे उद्यान में हो, अथवा पर्वत की गुफा में, किन्तु वह स्थान उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित होना चाहिए। पशु, पक्षी, स्त्री, नंपुसक, आदि से रहित होना चाहिए तथा चाहे वह गाँव में हो, अथवा गाँव से बाहर हो, विषम अथवा सम हो, किन्तु स्वाध्याय, ध्यानादि में विघ्न उत्पन्न करने वाला नहीं हो, अर्थात् ऐसे स्थान में साधक के द्वारा अपने अंगोपांग को संकुचित कर रखना ही वसति-संलीनता-तप कहा जाता है। 221
(२) इन्द्रिय-संलीनता :
उपर्युक्त वसति में रहते हुए इन्द्रियों को वश में करना इन्द्रिय-संलीनतातप है। इसमें कहा गया है कि इन्द्रियों के शब्दादि कोई भी विषय ऐसे नहीं है कि जिन्हें भोगकर व्यक्ति तृप्ति प्राप्त कर सके। विषतुल्य इन विषयों में से एक - एक विषय भी जीवन का घात करने में समर्थ है, तो जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों का एक साथ भोग करे, वह कुशल कैसे रह सकता है ? अतः
संवेगरंगशाला, गाथा ४०५२-४०५६.
220 अउसूरं पडिसूरं च, उडढ़सूरं च तिरियसूरं चासमपायमेगपायं, गद्धोलीणाऽऽ इठाणाई || संवेगरंगशाला, गाथा
४०४५-५१.
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