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________________ रिक्त थाहार में 132 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री और ५. किंचिदणा, अर्थात एकतीस कवला" 216 इसके अतिरिक्त आहार में एक-एक कवल कम करते हुए अन्त में एक कवल, आधा कवल, अथवा एक दाना जितना आहार ग्रहण करना भी सर्वद्रव्य-उणोदरिका-तप कहलाता है। जिनवचनों के चिन्तन-मननपूर्वक क्रोधादि कषायों का त्याग करना भाव-उणोदरिका कहलाता है। ३. वृत्ति-संक्षेप :- संवेगरंगशाला में वृत्तिसंक्षेप तप का निर्देश करते हुए यह निरूपण किया गया है कि भिक्षाचर्या के समय इतनी ही दत्ति,217 अथवा इतना ही आहार ग्रहण करूँगा, इसका परिमाण करना, पिण्डैषणा और पाणैषणा का नियम करना, अथवा प्रतिदिन विचित्र अभिग्रह करना, उसे वृत्तिसंक्षेप तप कहा गया है। अभिग्रह भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- इस तरह चार प्रकार से ग्रहण कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त बिना माँगे दिया जाए तो ही लूँगा, अथवा भोजन करने के लिए उठाया हुआ कवल मिले, तो आहार लूँगा, अथवा गायन करता या रोता हुआ, इस तरह अलग-अलग अवस्था में आहार दिया जाए, तो लेना, अन्यथा नहीं लेना, इत्यादि प्रकार के संकल्प को अभिग्रह कहा गया है। इस तरह वृत्तिसंक्षेप के लिए अनेक प्रकार के अभिग्रह ग्रहण कर सकते हैं।218 ४. रसत्याग :- संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार ने विकृतियों को दुर्गति का मूल कहते हुए उसे त्याग करने के लिए कहा है। दूध, दही, घी, तेल, मिठाई, आदि को विकृति (विगय) कहा गया है। इनके सेवन में स्वादासक्ति होती है। इनके त्याग के बिना संयम का पालन नहीं हो सकता है, अतः प्रतिदिन किसी न किसी विकृति का परिहार करना चाहिए। यही रस-त्याग कहलाता है। मक्खन, मांस, मदिरा और शहद- ये चारों महाविकृतियाँ हैं एवं आसक्ति, अब्रह्म, अंहकार और असंयम को बढ़ाने वाली हैं। इसमें आगे यह कहा गया है कि समाधि की इच्छा वाला इन विकृतियों का त्याग करता है तथा इसके अतिरिक्त स्वादिष्ट एवं विकार-उत्पादक अन्य वस्तुओं, यथा - नमक, लहसुन, आदि का भी त्याग करता है। 219 216 अप्पाऽऽहार-अवडढ़ा, दुभागपत्ता तहेव किंचूणा।अट्ठदुवाल ससोलस - चउवीस तहेक्कतीसा या। संवेगरंगशाला, गाथा ४०२७. 217 दत्ति - भिक्षा में देते समय एक साथ जितने आहार या पानी की मात्रा गिरे, उसे एक दत्ति कहते हैं। 218 संवेगरंगशाला, गाथा ४०३०-४०३८. 219 खीराऽऽईरसो विगई, तासिं चाओ उ होई परिहारो।संथरओ जंताओ, दुग्गइमूलाउ भणियाउ।। संवेगरंगशाला, गाथा ४०३६-४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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