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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 129
संवेगरंगशाला में स्पष्ट रूप से यह वर्णन किया गया है कि अनियत विहार करने से, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, इत्यादि परीषहों को सहन करने से एवं वसति, अर्थात् रहने का स्थान जैसा भी मिलता है, उसके कष्ट को सम्यक् रूप से सहन करने से चारित्र का अभ्यास होता है। 208 दसविध सामाचारी :
मुनि के लिए विशेष रूप से पालनीय नियम सामाचारी कहे जाते हैं। सामाचारी का दूसरा अर्थ सम्यक् दिनचर्या भी है। मुनि को अपने दैनिक जीवन के नियमों के प्रति विशेष रूप से सजग रहना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र में दस प्रकार की सामाचारी कही गई हं, जो इस प्रकार हैं:09 :१. आवश्यकीय :- मुनि आवश्यक कार्य होने पर उपाश्रय (निवासस्थान) से बाहर जाए। अनावश्यक रूप से आवागमन नहीं करे। २. नैषेधिकी :- उपाश्रय में आने पर यह विचार करे कि मैं बाहर के कार्यों से निवृत्त होकर आया हूँ। अब नितान्त आवश्यक कार्य के सिवाय मेरे लिए बाहर जाना निषिद्ध है। ३. आपृच्छना :- अपना कोई भी कार्य करने के लिए गुरु एवं गणनायक की आज्ञा प्राप्त करे। ४. प्रतिपृच्छना :- दूसरे के कार्य को गुरु एवं गणनायक से पूछकर करे। ५. छंदना :- भिक्षा द्वारा अपने उपभोग के निमित्त लाए गए पदार्थों के लिए भी अपने सभी साम्भोगिक-साधुओं को आमन्त्रित करे। अकेला चुपचाप उनका उपभोग न करे। ६. इच्छाकार :- गण के साधुओं की इच्छा जानकर तदनुकूल आचरण करे। ७. मिथ्याकार :- प्रमादवश कोई गलती हो जाए, तो उसके लिए पश्चाताप करे तथा नियमानुसार प्रायश्चित् ग्रहण करे। ८. प्रतिश्रुत-तथ्याकार :- आचार्य, गणनायक, गुरु एवं बड़े साधुओं की आज्ञा स्वीकार करे एवं उन्हें उचित मान दे।
208 चरिया छुहा य तण्हा, सीयं उहं च भावियं होई।अहिया सिया य सेज्जा, सम्म अणिययविहारेण।। संवेगरंगशाला, गाथा २१४४. 209 उत्तराध्ययनसूत्र - २६/२-४
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