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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 127
२. तृषा - परीषह :
भयंकर प्यास में व्याकुल बना मुनि स्वप्न में भी सचित्त जल पीने की इच्छा न करे, वरन् नरक के जीवों की वेदना एवं महापुरुषों के कष्टमय जीवन का चिन्तन करते हुए प्यास की वेदना को सहन करे ।
३. शीत - परीषह :
शीतऋतु में शीत परीषह के निवारण हेतु अधिक वस्त्रों को धारण न करे एवं अल्प वस्त्र के कारण अग्नि का ताप भी न ले।
४. उष्ण- परीषह :
ग्रीष्मकाल में भीषण गर्मी से शरीर में व्याकुलता होने पर भी मुनि स्नान, अथवा पंखे की हवा आदि से गर्मी को शान्त करने का प्रयत्न न करे, बल्कि उसे समभाव से सहन करे ।
५. दंश-मशक - परीषह :- डाँस, मच्छर, आदि के द्वारा डंक मारने पर दुःख उत्पन्न हो, तो भी क्रोध या आवेश में आकर उन्हें त्रास न दे, वरन् उपेक्षाभाव
रखे।
६. अचेल - परीषह :- वस्त्र के अभाव की चिन्ता न करे, न वीभत्स वस्त्र को धारण करे।
७. अरति - परीषह :- मुनि - जीवन में सुख-सुविधाओं का त्याग होता है, फिर भी यदि उनके भोग का विचार उत्पन्न हो एवं संयम में रुचि न रहे, तो भी मन लगाकर संयम - धर्म का पालन करे ।
८. स्त्री - परीषह :- स्त्री-संसर्ग को आसक्ति, बन्धन और पतन का कारण जानकर स्त्री-संग की इच्छा न करे और उनसे दूर रहे। साध्वियों के सन्दर्भ में यहाँ पुरुष - परीषह समझना चाहिए ।
६. चर्या - परीषह :- चातुर्मास के अतिरिक्त शेषकाल में मुनि को गांव में एक रात्रि एवं नगर में पाँच रात्रि से अधिक स्थिरवास करने का निषेध है, अतः अनेक प्रकार के कष्टों को समता से सहन करते हुए सदैव भ्रमण करे ।
१०. निषद्या - परीषह :- विषम, अथवा कंकरीली भूमि में स्वाध्याय, ध्यान, आदि के लिए एकासन में बैठना पड़े, तो भी मन में बुरे विचार न लाए एवं दुःखी न होते हुए उसे समभावपूर्वक सहन करे ।
११. शय्या - परीषह :- मुनि को ठहरने, अथवा सोने के लिए विषम भूमि हो, तो कोमल शय्या का विचार नहीं करे, बल्कि सहन करे ।
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