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________________ 126 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री १०. ब्रह्मचर्य : संवेगरंगशाला में 204 ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ उपलब्ध होता है। ब्रह्म, अर्थात् आत्मा, और चर्य, अर्थात् रमण । आत्मा में तल्लीन रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। ब्रह्मचर्य - धर्म का विस्तृत उल्लेख महाव्रतों एवं अणुव्रतों के सन्दर्भ में किया गया है | श्रमण को समस्त प्रकार के मैथुन का त्याग होता है, जबकि गृहस्थ - उपासक को स्वपत्नी - सन्तोष की मर्यादा होती है । ब्रह्मचर्य के पालन से व्यक्ति अनेक दोषों से बचता है, क्योंकि एक बार मैथुन का सेवन करने से लाखों जीवों की हिंसा होती है तथा वह मानसिक रूप से अशान्त बनता है एवं देह में भी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं। इसकी आसक्ति व्यक्ति को पतन की ओर ले जाती है, अतः श्रमण को अनिवार्य रूप से इस धर्म का पालन करना चाहिए । परीषह: आए हुए कष्टों को समता से सहन करना ही परीषह है। मुनि - जीवन में सबसे महत्वपूर्ण यदि कोई कठिन नियम है, तो वह परीषहों को समभावपूर्वक सहन करना है। गृहस्थ जीवन में भी अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है, किन्तु उसमें वह समता नहीं होती है, जो श्रमण - जीवन में होती है। जैन धर्म में एक या दो ही नहीं, बल्कि कुल बाईस परीषह कहे गए हैं। इन परीषहों को सहन करने से मुनि के कर्मों की निर्जरा होती है, इसलिए कष्ट - सहिष्णुता मुनि - जीवन के लिए अनिवार्य ही नहीं, उसकी जीवनचर्या का एक आवश्यक अंग भी है। जो कष्टसहिष्णु नहीं रहता है, वह अपने नैतिक - पथ से विचलित हो जाता है । जैन - साधु को दीक्षा स्वीकार करते ही इन बाईस परीषहों को सहन करना होता है। संवेगरंगशाला में इनका स्वतन्त्र रूप से तो कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु क्षपक को परीषहों को सहन करने के निर्देश हैं । इनका विवेचन उत्तराध्ययन-206 में उपलब्ध होता है, वे ये हैं 205 207 एवं समवायांगसूत्र १. क्षुधा - परीषह :आहार ग्रहण न करे, बल्कि भूख की वेदना से पीड़ित होता हुआ भी भिक्षु अशुद्ध क्षुधा - वेदना को समभावपूर्वक सहन करे । 204 संवेगरंगशाला, गाथा - ८६३३- ८६६३. 205 संवेगरंगशाला, गाथा २१४४. 206 207 उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २. समवायांग, २२/१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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