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________________ 114 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री शुद्ध होने से वह शुद्ध होती है, किन्तु अशुद्धि से बने हुए शरीर की शुद्धि किस तरह हो सकती है। शरीर की उत्पत्ति का कारण शुक्र और रुधिर हैं और ये दोनों ही अपवित्र हैं, इसलिए अशुचि से बना हुआ स्त्री शरीर भी अशुद्ध हैं विस्तारभय से यहाँ उसकी चर्चा नहीं की जा रही है। संवेगरंगशाला में अशुचि से शरीर की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ग्रन्थकार ने गर्भावस्था के स्वरूप का विस्तार से विवेचन किया है। इस ग्रन्थ में स्त्री-संसर्ग से विपत्ति को प्राप्त करने वाले चारूदत्त की कथा का भी विस्तृत उल्लेख मिलता है। 158 अपरिग्रह-महाव्रत : संवेगरंगशाला में ग्रन्थकार अपरिग्रह का उल्लेख करते हुए मुनि को कहते हैं- हे मुनि! तू बाह्य एवं आभ्यंतर- दोनों प्रकार के सर्वपरिग्रह की आसक्ति का मन-वचन व काया से त्याग कर। इसमें बाह्य एवं आभ्यन्तर के क्रमशः ६ एवं १४ भेद कहे गए हैं, वे ये हैं- चार वेद, हास्यादिषट्क एवं चार कषाय- ये चौदह आभ्यन्तर-परिग्रह हैं। क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्य, धातु-सोना-चांदी, दास-दासी, पशु-पक्षी, तथा शयन-आसनादि नौ प्रकार के बाह्य परिग्रह हैं। जैसे- क्षालयुक्त चावल (धान) शुद्ध नहीं कहलाता है, वैसे परिग्रह से युक्त जीव भी कर्ममल से शुद्ध नहीं हो सकता है, साथ ही यह भी कहा गया है कि जब गारव एवं परिग्रह-संज्ञा का उदय होता है, तब लालची जीव को परिग्रह संग्रह करने की बुद्धि पनपती है। उसके कारण वह जीवों की हत्या करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित धन एकत्रित करता है। धन के मोह में जीव अहंकार, चुगली, कलह, कठोरता, झगड़ा, आदि अनेक दोषों का सेवन करता है। 159 धन-प्राप्ति के लिए सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, वर्षा, आदि अनेक कष्टों का भार-वहन करता है, साथ ही नीच-कर्म भी करता है, फिर भी मन्द भाग्य के कारण धन को प्राप्त नहीं कर पाता है। यदि किसी तरह धन मिल भी जाए तो उसे उस धन से तृप्ति नहीं होती है, क्योंकि लोभ से लोभ बढ़ता है। जैसे ईंधन से अग्नि और नदियों से समुद्र तृप्त नहीं होता, वैसे ही जीव को तीन लोक की ऋद्धि भी मिल जाए, फिर भी तृप्ति नहीं होती है। 158 विंगरंगशाला, 15 संवैगरंगशाला, गाथा ८१४७/८१५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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