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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 113 अपयश, अनर्थ और दुःख का तथा परलोक में होने वाली दुर्गति का और अनन्त संसार-परिभ्रमण का भी विचार नहीं करता है। 2156 ग्रन्थकार स्त्री के संसर्ग से होने वाले दोषों का निरूपण करते हुए कहते हैं कि स्त्री पुरुष को अपने वश में करके इस जन्म और परलोक दोनों जन्मों में दुःख देने वाले दोषों को प्रकट करने वाली होती है, निर्मल स्वभाव वाले पुरुष को भी मलिन करती है। स्त्री पुरुष का अनादर करती हुई भी कपट से पुरुष को टगती है और उद्यम करने पर भी पुरुष स्त्री को ठग नहीं सकता है। पुरुष के लिए स्त्री के मन को जानना अति दुष्कर है, ऐसा उल्लेख करते हुए कहा गया है कि समुद्र में जितनी जल-तरंगें होती हैं तथा नदियों में जितने रेत-कण होते हैं, उससे भी अधिक स्त्री के मन के अभिप्राय होते हैं। आकाश, भूमि, समुद्र, मेरुपर्वत एवं वायु, आदि दुर्जेय पदार्थों को पुरुष जान सकता है, किन्तु स्त्रियों के भावों को किसी भी तरह से नहीं जान सकता है। जिस प्रकार पानी का बुलबुला और बिजली का प्रकाश स्थिर नहीं रहता है, वैसे ही स्त्रियों का चित्त एक पुरुष से चिरकाल तक प्रसन्न नहीं रहता है। परमाणु भी एक बार हाथ में पकड़ा जा सकता है, किन्तु स्त्री के मन की अति सूक्ष्मता को पकड़ने में पुरुष भी शक्तिमान् नहीं है। विकराल सिंह, सर्प एवं हाथी को भी पुरुष किसी तरह वश में कर सकता है, किन्तु दुष्ट स्त्रियों को वश में नहीं कर सकता है। सम्भव है कि पानी में भी पत्थर तैर जाए, अग्नि भी शीतलता दे, किन्तु स्त्री का चित्त कभी भी ऋजु या सरल नहीं हो सकता है, अतः सरलता के अभाव में स्त्री पर विश्वास कैसे हो सकता है और बिना विश्वास स्त्रियों में प्रीति कैसे हो सकती है? इसलिए इन सर्व कारणों से स्त्री के प्रति ममत्वबुद्धि सर्वथा त्याज्य है।' 157 संवेगरंगशाला में स्त्री-चारित्र का विस्तृत विवेचन करते हुए कहा गया है. कि मनुष्य का स्त्री के समान दूसरा कोई शत्रु नहीं है, इसलिए स्त्री को न+अरि=नारी कहते है। स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न हुए दोषों का चिन्तन करने वाले विवेकी पुरुष का मन प्रायः स्त्रियों से विरक्त हो जाता है। जैसे विवेकी पुरुष इस लोक में दोषों से युक्त सिंह, आदि का त्याग करता है, वैसे ही दोषों से युक्त स्त्रियों से भी दूर रहता है। स्त्री के दोषों के सम्बन्ध में अधिक क्या कहें? संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने कहा है कि जो वस्तु शुद्ध सामग्री से बनी हो, उसका मूल कारण 156 157 संवेगरंगशाला, गाथा ७६८० / ७६८३. संवेगरंगशाला, गाथा ७६६०-८०११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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