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________________ 112 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री भोजन का त्याग, अतिमात्रा में आहार का त्याग और विभूषा का त्याग- इस तरह ये नौ गुप्तियाँ मुनि के ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ बाड़ के रूप में कही गई हैं। 153 ___ कामासक्त मनुष्य की स्थिति का वर्णन करते हुए कहते हैं कि काम से पीड़ित पुरुष शोक करता है, चिन्ता करता है, कांपता है, अशुभ ध्यान करता है, निद्रारहित होता है एवं उसकी किसी भी कार्य में रुचि नहीं होती है। एक क्षण वर्ष जैसा लगता है, उसके अंग शिथिल हो जाते हैं, वह काम में उन्मादी बना रहता है, वस्तु तथा इच्छित प्रिय की प्राप्ति नहीं होने पर अग्नि, पर्वत या पानी में अपघात कर लेता है, साथ ही कामी पुरुष को सर्प के विष से भी ज्यादा भयंकर कहा गया है। आशीविष सर्प के डंक लगने से मनुष्य में सात विकार होते हैं, परन्तु कामरूपी सर्प का डंक अति दुष्ट परिणाम देने वाला है। उसके कारण निम्न दस विकारी अवस्थाएँ प्राप्त होती हैं- कामासक्त पुरुष चिन्ता करता है, देखने की इच्छा करता है, निःश्वास लेता है, उसे ज्वर चढ़ता है, शरीर में दाह उत्पन्न होता है, वह उन्मादी होता है, बेहोश होता है और अन्त में प्राण भी त्याग देता है। इसमें भी काम-संकल्प में जितनी तीव्रता और मन्दता होगी, उतनी तीव्रता और मंदता इन दस अवस्थाओं की होती है।154 काम को सूर्य के ताप से भी अधिक तापवाला कहा है, क्योंकि सूर्य का ताप मनुष्य को दिन में ही जलाता है, जबकि काम का ताप दिन-रात जलाता है। सूर्य के ताप से बचने के लिए छत्र, आदि होते हैं, किन्तु काम से तप्त का कोई आच्छादन नहीं होता है। सूर्य का ताप जल-सिंचन, आदि से शान्त होता है, जबकि कामी पुरुष की कामाग्नि कभी शान्त नहीं होती है। सूर्य का ताप मात्र मनुष्य की चमड़ी को जलाता है, जबकि कामाग्नि मनुष्य को अन्दर और बाहरदोनों और से जलाती है। इस तरह कामाग्नि से जलता हुआ मनुष्य हितैषी को भी शत्रु के समान देखता है।155 कामी पुरुष अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु की अवज्ञा करता है, श्रुतरत्न का त्याग करता है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपरूपी श्रेष्ठ गुणों को तृणसदृश मानता है। कामासक्त पुरुष इस जन्म में प्राप्त होने वाले 153 संगरंगशाला, गाथा ७६६१/७६६४ 154 संवेगरंगशाला, गाथा ७६६६/७६७६ 155 संवेगरंगशाला, गाथा ७६७७७६७६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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