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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 115 धन के लिए जीव माता, पिता, पुत्र और पुत्री पर भी विश्वास नहीं करता है। धन की रक्षा करते हुए समग्र रात्रि जाग्रत रहता है तथा जब धन का विनाश होता है, तब पुरुष उन्मत्त होकर विलाप करता है, शोक करता है और पुनः धन की प्राप्ति की उत्सुकता रखता है। परिग्रह के ग्रहण एवं रक्षण में मर्यादा से भ्रष्ट हुआ जीव शुभध्यान आदि धर्म नहीं कर सकता है। 100 जैसे अग्नि का हेतु लकड़ी है, वैसे ही कषायों का हेतु आसक्ति या संग्रड्बुद्धि है, इसलिए अपरिग्रही साधु कषायों का त्याग करते हैं। जो अपरिग्रही होता है, वही नम्र एवं सबका विश्वास-पात्र बनता है। जो परिग्रहों में आसक्ति रखता है, वह अभिमानी, चिन्तातुर एवं शंका का पात्र बनता है, इसलिए हे सुविहित मुनि! तुझे भूत, भविष्य और वर्तमान के सर्वपरिग्रह का तीन योग व तीन करण से त्याग करना चाहिए। इस तरह सर्वपरिग्रह का त्यागी साधु मोक्ष को प्राप्त करता है। 101 अहिंसा आदि महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन का त्याग अनिवार्य है, अतः आगे रात्रिभोजनत्याग की चर्चा करेंगे। रात्रिभोजनत्याग-व्रत : रात्रि-भोजन को महापाप कहा है। शास्त्रकारों ने कहा है- “धुवड़ कागने नागना ऐ पामे अवतारतो", यानी रात्रिभोजन करने से जीव उल्लू, कौआ और सर्प, इत्यादि योनियों को प्राप्त करते हैं। रत्नसंचय नामक ग्रन्थ में रात्रि-भोजन से कितना पाप लगता है, उसका उल्लेख है। उसमें कहा गया है कि १६६ भव तक परस्त्रीगमन करने में जितना पाप लगता है, उतना पाप एक बार रात्रिभोजन करने वाले को लगता है, तो फिर प्रतिदिन रात्रिभोजन करने से कितना पाप लगेगा?162 आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार रात को भोजन न करना अहिंसा-महाव्रत का संरक्षक होने के कारण समिति की भांति उत्तरगुण है, फिर भी मुनि के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है, अतः मूलगुण के अन्तर्गत गिना जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि साधु के पंच महाव्रत आदि २७ गुण को मूलगुण एवं मूलगुणों के संरक्षक पिण्डविशुद्धि आदि को उत्तरगुण कहा गया है। जहाँ तक संवेगरंगशाला का प्रश्न है, इसमें हमें रात्रिभोजनत्याग के सम्बन्ध में अलग से कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु चतुर्थद्वार के प्रथम अनुशास्ति नामक प्रतिद्वार के दसवें पंचमहाव्रत नामक उपद्वार में अहिंसाव्रत 160 संवेगरंगशाला, गाथा ८१५७/८१६५. 161 संवेगरंगशाला, गाथा ८१७१/८१७८. 162 श्राद्धदिनचर्या - ५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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