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किया गया है। तीन योग, चार कषाय, तीन करण एवं संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ- ये तीन स्थितियाँ इनको परस्पर गुणित करने से जीव-हिंसा के 3x4x3x3 = 108 भेद होते हैं। इसमें संरम्भ, अर्थात् हिंसा का संकल्प करना; समारम्भ, अर्थात् जीव को परिताप देना या हिंसा के साधन जुटाना एवं आरम्भ, अर्थात् प्राणों का विनाश करना - ऐसे हिंसा के तीन रूप बताए गए हैं। निक्षेप, निवृत्ति, संयोजन और निसर्ग- ये चार अजीवहिंसा के मूल भेद हैं।
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 109
इनमें प्रत्येक के क्रमशः चार, दो, दो और तीन- इस तरह ग्यारह भेद कहे गए हैं। (१) १. अप्रमार्जना २. दुष्प्रमार्जना अनाभोग- ये चार भेद निक्षेप के हैं। (२) १. काया से दुष्ट व्यापार करना एवं ये निवृत्ति के दो भेद हैं।
३. सहसाकार और ४.
२. हिंसक उपकरण बनाना
(३) १. उपकरण का संयोजन करना एवं २. आहारपानी का संयोजन करना - ये दो संयोजन के भेद हैं।
(४) १. मन २. वचन और ३. काया की कुमार्ग में प्रवृत्ति - ये तीन भेद निसर्ग के कहे गए हैं। 146
सामान्य रूप से प्रमत्त योगपूर्वक प्राणघात करना हिंसा है। प्रमाद एवं अत्यधिक कषाय- इन दोनों से भी जीव की हिंसा होती है। गधे के मस्तक पर जैसे सींग नहीं होते हैं, वैसे ही रस - गारव, ऋद्धि - गारव एवं साता - गारव में आसक्ति रखने वाले और नगर, कुल, आदि से ममत्व रखने वाले अज्ञानी मूढात्मा में अहिंसा नहीं होती है। ज्ञान, तप, त्याग, सेवा, स्वाध्याय, आदि सबका सार अहिंसा है| अहिंसाव्रत का विवेकपूर्वक पालन करने से अहिंसक को परलोक में दीर्घ आयुष्य, आरोग्यता, सौभाग्य, सुरूप, शुभवर्ण, आदि का योग होता है। इससे विपरीत हिंसक जीव को परलोक में अल्पायुष्य, अशुभवर्ण, गंध, रूप, आदि का योग होता है। जो सदैव सुख की आकांक्षा वाला हो, जीवदया का उपयोग रखता हो, प्रत्येक वस्तु के लेने में, रखने में, तथा उठने-बैठने आदि समस्त क्रियाओं में अप्रमत्त एवं दयालु हो, उस जीव के जीवन में निश्चय से अहिंसा होती है। 147
146 संवेगरंगशाला, गाथा ७६१२/७६१७.
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संवेगरंगशाला, गाथा ७६१८ /७६२७.
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