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________________ 108 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री गृहस्थ साधक अपनी मर्यादा निश्चित करके आंशिक रूप से उनका परिपालन करता है। अपवाद बिना पूर्ण रूप से इन व्रतों का पालन करना ही महाव्रत कहलाता है। सामान्यतया, मुनि को इन महाव्रतों का पालन नव कोटियों सहित करना होता है। अहिंसामहाव्रत : संवेगरंगशाला में अहिंसा व्रत का उल्लेख करते हुए इसमें श्रमण को क्या प्रतिज्ञा ग्रहण करना चाहिए, इसका निरूपण इस प्रकार किया गया हैजीवन-पर्यन्त के लिए सर्वथा प्राणातिपात का त्याग, अर्थात् त्रस और स्थावर जीवों की मन-वचन और काया से हिंसा न करना, दूसरों से न कराना और हिंसा करने वालों का अनुमोदन नहीं करना। आगे इसमें जीव के भेद-प्रभेद का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि उन सर्व जीवों को निजात्मा के सदृश मानकर उन सब पर दयाभाव रखना चाहिए; क्योंकि निश्चय से वे सभी जीव जीना चाहते हैं, इसीलिए धीरपुरुष हिंसा का सर्वथा त्याग करते हैं, साथ ही श्रमण के लिए हितोपदेश का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं- हे मुनि! चाहे तू भूख-प्यास से पीड़ित हो और शुद्ध आहार भी दुर्लभ हो, तो भी तू स्वप्न में भी कभी किसी प्राणी का वध करने का विचार नहीं करना। हास्य, रति, अरति, भय, शोक, आदि से युक्त होकर भोग-उपभोग के लिए जीवों की हिंसा मत करना। यदि इन्द्र भी तीन जगत् की ऋद्धि और प्राणरक्षण- इन दोनों में से कोई एक का वरदान मांगने को कहे, तो ऐसा कौन बुद्धिमान् जीव होगा जो अपने प्राण को छोड़कर तीन जगत् की ऋद्धि की याचना करेगा? अर्थात् कोई नहीं करेगा, क्योंकि मानव-जीवन तीनों लोक की सम्पत्ति की प्राप्ति से भी ज्यादा दुर्लभ एवं सर्व को प्रिय है, दोनों में कोई समानता हो नहीं सकती है। 44 ग्रन्थकार अहिंसा की महानता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे पर्वतों में मेरुपर्वत श्रेष्ठ है, वैसे ही व्रतों में अहिंसाव्रत श्रेष्ठ है, महान् है। जैसे आकाश लोक का आधार है, द्वीप, समुद्र-यात्रा में आधारभूत हैं, वैसे ही अहिंसा दान, शील, और तप का आधार है; साथ ही ग्रन्थकार कहते हैं कि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह एवं रात्रिभोजन-त्याग, आदि के पालन बिना अहिंसक अपने प्रयोजन की सिद्धि नहीं कर सकता है, क्योंकि ये सभी गुण अहिंसाव्रत की सुरक्षा के लिए हैं। 145 इसमें जीवहिंसा और अजीवहिंसा- ऐसे दो प्रकार की हिंसा का उल्लेख कर जीवहिंसा के १०८ भेदों और अजीवहिंसा के ११ भेदों का उल्लेख 144 संवेगरंगशाला, गाथा ७८८६/७६०० संवेगरंगशाला, गाथा ७६०१/७६११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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