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________________ 110/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री सत्य-महाव्रत : संवेगरंगशाला में जिनचन्द्रसूरि ने क्षपकमुनि को चार प्रकार के असत्य भाषण का त्याग करने का उल्लेख किया है। प्रथम असत्य-सद्भूत पदार्थों का निषेध करना, जैसे- जीव नहीं है। दूसरा असत्य असद्भूत कथन करना जैसेजीव पाँच भूतों से बना है एवं कुछ भी सत् नहीं है। तीसरा असत्य, जैसे-जीव को एकान्त रूप से नित्य, अथवा अनित्य मानना। चौथा असत्य, अनेक प्रकार से सावध वचन बोलना, जैसे-अप्रियवचन या कर्कशवचन, चुगली, निन्दा, आदि करना। इससे हिंसादि का दोष लगता है। 48 ___ मुनि को हास्य, क्रोध, लोभ, अथवा भय से भी असत्य बोलने का त्याग करना चाहिए तथा प्रिय, मित, मधुर, सावद्यरहित, छलरहित, सबको सुखकर लगे, ऐसे प्रशस्त वचन बोलना चाहिए, क्योंकि सत्यभाषी पुरुष सदैव माता के समान विश्वसनीय, गुरु के समान पूजनीय एवं स्वजन के समान सर्वप्रिय होता है। सत्य में तप, संयम आदि सर्वगुणों का समावेश है। सत्य वचन बोलने वाले सत्यवादी पुरुष की अग्नि, जल, देव, नदी, पर्वत, आदि भी रक्षक बनकर रक्षा करते हैं। सत्य से ग्रहदशा व पागलपन भी टल जाता है, सत्यवादी को देवता भी सदैव नमस्कार करते हैं एवं उसके वश में रहते हैं। इस तरह सर्वत्र उसकी प्रशंसा होती है, कीर्ति फैलती है और प्रसिद्धि होती है। असत्य वचन के बोलने से असत्यवादी सदैव अविश्वास का पात्र होता है। वह अपकीर्ति, धिक्कार, कलह, वैर, भय, शोक तथा धन के विनाश का हेतु होता है। दूसरे भव में मृषासम्भाषण नहीं करने पर भी इस भव के अन्य दोषों के कारण उसमें चोरी आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, अतः इन दोषों से बचने के लिए और उपर्युक्त गुणों को प्राप्त करने के लिए मुनि को असत्य सम्भाषण का त्याग करना चाहिए।149 अदत्तादान-महाव्रत : साधु संसार की कोई भी वस्तु चाहे सचित्त हो या अचित्त, अल्पमूल्य की हो या बहुमूल्य, बिना उसके मालिक की आज्ञा के ग्रहण नहीं करें। अदत्तादान-त्यागवत में मुनि को दन्तशोधन की शलाका भी दिए बिना लेने की इच्छा करने का भी निषेध कहा गया है। जैसे पिंजरे में बन्द बन्दर फलों को खाने के लिए दौड़ता है, वैसे ही जीव परधन को देखकर उसे लेने की इच्छा करता है। 14 संवेगरंगशाला, गाथा ७६२८/७६३१. 149 संवेगरंगशाला, गाथा ७६३२/७६४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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