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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 105
दोषों से ग्रसित स्त्रियों के शरीर के भोग से जो विरक्त होगा, वही संसार में पुनः पुनः जन्म, जरा और मरण के चक्र से मुक्त होगा।
इसी में आगे विशेष धर्म के गुणों को बताते हुए कहा गया है कि साधक को पंचविध आचारवाले गुरु की भक्ति, सुविहित साधुजन की सेवा, गुणीजनों के साथ रहना, उनके गुणों को प्राप्त करना, सूत्रों का अभ्यास करना, अपूर्व अर्थ एवं नई हितशिक्षा प्राप्त करना, सम्यक्त्व गुण की विशुद्धि करना, साधर्मिकों से गाढ़ राग रखना और शास्त्रानुसार अतिथि को दान आदि देने के पश्चात् भोजन करना, इस लोक के लौकिक-कार्यों में अरुचि और अनादर तथा परलोक की आराधना में रुचि एवं आदर, चारित्र के गुणों में तत्परता, इत्यादि उत्तरगुणों की सम्यक् आराधना करते हुए कुलीन गृहस्थ समय व्यतीत करे। जैसे- कोई धीरे-धीरे कदम बढ़ाने से भी पहाड़ पर चढ़ जाता है, वैसे ही धीर पुरुष क्रमशः प्रयत्न करते हुए आराधनारूपी पर्वत के ऊपर समारूढ़ हो जाता है। इस प्रकार यहाँ धार्मिक-गृहस्थ का विशेष आचार कहा गया है।138 मुनिधर्म :
संवेगरंगशाला में सामान्य आराधना का विवेचन करते हुए जिनचन्द्रसूरि ने गृहस्थधर्म और मुनिधर्म का विवेचन किया है। मुनिधर्म के विवेचन के प्रसंग में संवेगरंगशाला में हमें पंच-महाव्रतों का विवेचन उसके चौथे द्वार में उपलब्ध होता है। पंच-महाव्रतों का यह विवेचन तो संवेगरंगशाला में अति विस्तार के साथ उपलब्ध होता है, किन्तु मुनि-जीवन के प्राणरूप पंच-समिति और त्रिगुप्ति का विवेचन प्रस्तुत कृति में उतने विस्तार से उपलब्ध नहीं होता है। प्रथम परिकर्मद्वार के अन्तर्गत चतुर्थ विनय-उपद्वार में मुनि के विनय-धर्म का उल्लेख करते हुए आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने पंच समिति और त्रिगप्ति का निर्देश किया है। 139 इसी प्रकार आसेवन-शिक्षा के अन्तर्गत दसविध-सामाचारी का तथा मुनि की दैनिक-चर्या के रूप में प्रतिलेखना, प्रमार्जना, भिक्षाचर्या, आदि का उल्लेख किया है। 140 साथ ही, इस प्रसंग में उन्होंने स्थण्डिलभूमि-शुद्धि आदि को लेकर भी विचार किया है। इस प्रकार जिनचन्द्रसूरि ने यथावसर मुनिधर्म का विस्तृत निर्देश किया है। इसी मनोनुशास्तिद्वार में मन के संयम का उपदेश दिया गया है। मन का संयम ही शरीर और वाणी के संयम का आधार होता है। मुनि-जीवन में मन,
___137 संवेगरंगशाला, गाथा १५६३-१५६७ 138 संवेगरंगशाला, गाथा १५६८-१५७८. 139 संवेगरंगशाला, गाथा १५६३ 40 संवेगरंगशाला, गाथा १५६४-१६०२
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