________________
104 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
दिनचर्या-विधि के अन्त में यह बताया गया है कि श्रावक को विधिपूर्वक शयन करते समय देव-गुरु का स्मरण करना चाहिए। गृहस्थ को यथाशक्ति उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए, अथवा मैथुन आदि की मर्यादापूर्वक एकान्त स्थान में शयन करना चाहिए।134
आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावक की दिनचर्या का वर्णन करते हुए योगशास्त्र में लिखा है कि श्रावक ब्रह्ममुहूर्त में उठकर धर्म का चिन्तन करे, तत्पश्चात् पवित्र होकर अपने गृह-चैत्य में जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करे, फिर गुरु की सेवा में उपस्थित होकर उनकी सेवा-भक्ति करे। तत्पश्चात् धर्मस्थान से लौटकर आजीविका के स्थान में जाकर इस प्रकार धनोपार्जन करे कि उसके व्रत-नियमों में बाधा न पहुँचे। इसके बाद मध्याहनकालीन साधना करे और फिर भोजन करके शास्त्रवेत्ताओं के साथ शास्त्र के अर्थ का विचार करे। पुनः, संध्या समय देव-गुरु की उपासना एवं प्रतिक्रमण आदि षटावश्यक क्रिया करे, फिर स्वाध्याय करके अल्पनिद्रा ले।135 संवेगरंगशाला में वर्णित गृहस्थ का आध्यात्मिक-चिन्तन :
संवेगरंगशाला के तीसरे द्वार में आगे यह बताया गया है कि यदि गृहस्थ मोहवश किसी अधर्म-कार्य में प्रवृत्ति करता हो, तो मोह के विकारों का वेग जब भी शान्त हो, तब भावपूर्वक इस प्रकार चिन्तन करे- मोह सर्व अनर्थों एवं दुःखों का मूल है, इसके वश में पड़ा हुआ प्राणी हित को अहित मानता है। इसके अधीन बना हुआ मनुष्य स्त्री के असार मुखादि को चन्द्र आदि की उपमा देता है, ऐसे मोह को धिक्कार हो। 36
साथ ही यह कहा गया है कि जो मुख चन्द्र की कान्ति के समान मनोहर कहलाता है, वही मुख गन्दे मैल का झरना भी है। वह दो चक्षु, दो कान, दो नासिका-द्वार एवं एक मुख - ऐसे सात मूलस्रोत से युक्त है। पेट अशुचि की पेटी है और शेष शरीर भी मांस, हड्डी और नसों की रचनामात्र है। यह स्वभाव से ही दुर्गन्धमय मल से भरा हुआ है, मलिन और नाश होने वाला है। साथ ही प्रकृति से ही अधोगति का द्वार, घृणाजनक और तिरस्कार करने योग्य है। इसमें जो गुह्य विभाग हैं, वे भी लज्जा उत्पन्न करने वाले हैं तथा अनिष्टरूप होने से उन्हें भी ढंकने की जरूरत पड़ती है। इतने पर भी मनुष्य कामासक्त बना कामभोगों को भोगता है, तो इससे बढ़कर खेद की बात क्या हो सकती है? ऐसे
134 संवेगरंगशाला, गाथा १५५१-१५५८
135 योगशास्त्र - ३/१२१-१३१. 136 संवेगरंगशाला, गाथा १५५६-१५६२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org