SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 103 आहार - औषध आदि से उचित भक्ति करे । उसके पश्चात् आजीविका हेतु लोक एवं धर्म की निन्दा से रहित अपना व्यापार करे। 132 भोजन के समय घर आकर स्नान से निवृत्त होकर जिनमन्दिर में जाकर अष्टप्रकारी पूजा करे। द्रव्यपूजा में जल, चन्दन और पुष्प से प्रभु की अंगपूजा करे तथा धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य और फल से प्रभु की अग्रपूजा करे, वस्त्र आदि से सत्कार- पूजा एवं स्तुति, स्तोत्र आदि के द्वारा प्रभु की सम्यक् रूप से भाव - पूजा करे । पूजा करने के पश्चात् श्रावक किस तरह साधु एवं साधर्मिक की भक्ति करे, इसका वर्णन प्रस्तुत कृति में निम्न प्रकार से है- श्रावक पुनः साधु महाराज के पास जाकर विनती करे- “हे भगवन्! अशनादि वस्तुओं को ग्रहण करके, आप मुझ पर अनुग्रह करें। " संसाररूपी कुएँ में गिरते हुए इस मुझ पामर को हाथ का सहारा दो" - इस प्रकार प्रार्थना करे। साधु भगवन्त को अपने साथ घर ले जाए, घर आते ही स्वजनादि सभी साधु भगवन्त के सामने आकर भावपूर्वक वन्दन करें, फिर श्रद्धायुक्त विधिपूर्वक सुपात्र दान दें, फिर वन्दनपूर्वक विदा करें। इसके पश्चात् पिताजी आदि वयोवृद्ध को भोजन करवाकर पशु, नौकरों आदि के योग्य उनके खाने की व्यवस्था करके, अन्य अतिथिगण की भी भक्ति करके तथा रोग से ग्रस्त स्वजनों आदि की सार-संभाल करके फिर उचित आसन पर बैठकर प्रत्याख्यान का स्मरण करके नवकारमंत्र के स्मरणपूर्वक भोजन करे | 133 भोजन करने के पश्चात् घर - मन्दिर में परमात्मा के सामने बैठकर चैत्यवन्दन करके तिविहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करे। फिर समयानुसार स्वाध्याय तथा सूत्रों का अभ्यास करे । पुनः, जीवन निर्वाह के लिए लोक में अनिन्दनीय हो, ऐसा व्यापार करे। सन्ध्या के समय पुनः गृह - मन्दिर में पूजन, दर्शन करके फिर श्रीसंघ के जिनमन्दिर में जाए । जिनबिम्बों की अर्चना एवं चैत्यवंदन करे । जिस प्रकार प्रातःकाल की विधि में कहा गया है, उसी प्रकार शाम को भी सामायिक प्रतिक्रमणादि क्रिया करे। साधु भगवन्त हों, तो उपाश्रय में जाकर उनकी वन्दना करे तथा आलोचना और क्षमापना करके प्रत्याख्यान ग्रहण करे तथा समयानुसार धर्मशास्त्र का अनुश्रवण करके, साधु की सेवा सुश्रुषा करे । संदिग्ध शब्दों का अर्थ पूछकर तथा श्रावकवर्ग के कर्त्तव्यों को समझकर घर जाए। 132 133 संवेगरंगशाला, गाथा १५३२- १५४२ संवेगरंगशाला, गाथा १५४३-१५५० Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy