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102 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री
अन्त में यह बताया गया है कि आराधक को इन गुणों का प्रतिदिन अभ्यास करना चाहिए, निश्चय से यही आराधक-गृहस्थ का लिंग है। संवेगरंगशाला में वर्णित गृहस्थ की दिनचर्या :
___संवेगरंगशाला के प्रस्तुत द्वार में साधु एवं गृहस्थ के सामान्य आचार-धर्म का विवेचन करने के पश्चात् केवल गृहस्थ के विशेष आचार-धर्म का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि श्रावक को धन, यौवन और आयु को विनश्वर मानते हुए अपने भावों को प्रतिदिन शुभ परिणामों की ओर बढ़ाना चाहिए। स्वभाव से विनीत, भद्रिक, संवेगी और उदारचित्त वाले बुद्धिमान् श्रावक को साधर्मिकवात्सल्य
और जिन-मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराने में धन का व्यय करना चाहिए तथा परनिन्दा से बचना चाहिए। 50
प्रस्तुत कृति में आगे श्रावक की दिनचर्या एवं जीवनचर्या में यह बताया गया है कि सर्वप्रथम निद्रा से जाग्रत होते ही श्रावक पंचपरमेष्ठी महामंगल मंत्र का स्मरण करे। फिर लघुशंकादि का त्याग करके गृहमन्दिर में जिन-प्रतिमाओं को वन्दन करके साधु भगवन्त के उपाश्रय में जाकर वहाँ प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाएँ करे। इस प्रकार करने से श्रावक को गुरु के प्रति विनय का प्रकटन तथा सूत्र-अर्थ का विशेष ज्ञान होता है, साथ ही वह रुमाचारी या आचार के नियमों में कुशल होता है, मिथ्यात्वबुद्धि का नाश होता है, और गुरु की साक्षी में धर्म क्रिया आदि विधिपूर्वक होती है और इससे जिनेश्वर की आज्ञा का पालन होता है।
साथ ही यह भी कहा गया है कि गुरु की अनुपस्थिति में भी उपाश्रय या पौषधशाला आदि में जाकर प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करे तथा समयानुसार स्वाध्याय एवं नए सूत्रों का अध्ययन आदि करके घर जाए। घर पर विशेष कार्य न हो, तो उसी समय शरीर की शुद्धि हेतु स्नान करके पुष्प आदि पूजन की सामग्री लेकर सपरिवार मन्दिर में जाए तथा पाँच प्रकार के अभिगमों का पालन करते हुए विनयपूर्वक मन्दिर में प्रवेश करे, फिर विधिपूर्वक प्रभु की पूजा करके देववन्दन करे। किसी कारण से प्रातःकाल में सामायिक न की हो, तो पौषधशाला में जाकर सामायिक आदि क्रिया करके मुनि से वन्दनपूर्वक प्रत्याख्यान करे। फिर समयानुसार जिनवाणी श्रवण करके मुनि भगवन्तों के संयम-तपादि की सुखसाता पूछकर
129 संवेगरंगशाला, गाथा १२०२-१२०७ 15 संवेगरंगशाला, गाथा १५२४-१५२८
संवेगरंगशाला, गाथा १५२६-१५३१
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