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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 101
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अन्त में संवेगरंगशाला के अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमा सम्पन्न कर वह श्रमणोपासक श्रमण बन जाता है तथा कभी पुत्रादि पर मोह हो जाने से श्रमण न बनकर गृहस्थ भी रहता है। यही दृष्टिकोण दशाश्रुतस्कंध में एवं विंशतिका में भी उपलब्ध होता है। ऐसा श्रावक जीवन के सन्ध्याकाल में समाधिमरण भी स्वीकार कर लेता है।
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आराधक-गृहस्थ की पहचान ( लिंग )
संवेगरंगशाला में सर्वप्रथम आराधना के योग्य कौन-कौन हैं, इसका उल्लेख करने के पश्चात् उस आराधक के लिंग, अर्थात् वेशभूषा को बताया गया है। प्रस्तुत कृति के लिंगद्वार में साधु एवं गृहस्थ- दोनों के लिंगों के उल्लेख मिलते हैं। संवेगरंगशाला में यह बताया गया है कि “निश्चय से इहलोक और परलोक को साधने वाला जिनकथित लिंग, जो पूर्व में अर्हताद्वार में कहा गया है, उसमें रहकर संवेग या वैराग्य भाव की वृद्धि करते हुए साधना करना ही योग्य - जीव की आराधना का लिंग (द्वार ) है । '
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आराधक-गृहस्थ का सामान्य लक्षण ( लिंग ) :
संवेगरंगशाला में आराधक - गृहस्थ किन-किन लक्षणों, अर्थात् लिंगों से पहचाने जा सकते हैं, इसका उल्लेख निम्न रूप से किया गया है
गृहस्थ- आराधक को शस्त्र, मूसल आदि उपकरणों का त्याग
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करना चाहिए।
२.
३.
४.
:
देह पर चन्दनादि सभी विलेपनों का त्याग करना चाहिए। लज्जा ढकने के लिए अल्प वस्त्र रखना चाहिए। एकान्तस्थान में रहकर स्वाध्याय, सामायिकादि क्रियाएँ करना
चाहिए।
५.
पौषध में इन्द्रियविषय-सुख एवं संसार की वस्तुओं के प्रति राग का त्याग कर संसार की अनित्यता, अशरणता, आदि का चिन्तन करना
चाहिए।
६. सचित्त अन्न और जल का त्याग करके परिमित प्रासुक भोजन एवं जल का सेवन करना चाहिए।
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125 संवेगरंगशाला, गाथा २७६० - २७७४
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दशाश्रुतस्कन्ध ६ / ११.
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सेविण एवं कोई पव्वयइ तह गिही होई । तब्भावभेयओ च्चिय विसुद्धिसंकेसभेएणं - विंशतिका १०/१८.
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संवेगरंगशाला, गाथा १२०० - १२०१
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