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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 101 125 126 अन्त में संवेगरंगशाला के अनुसार ग्यारहवीं प्रतिमा सम्पन्न कर वह श्रमणोपासक श्रमण बन जाता है तथा कभी पुत्रादि पर मोह हो जाने से श्रमण न बनकर गृहस्थ भी रहता है। यही दृष्टिकोण दशाश्रुतस्कंध में एवं विंशतिका में भी उपलब्ध होता है। ऐसा श्रावक जीवन के सन्ध्याकाल में समाधिमरण भी स्वीकार कर लेता है। 127 आराधक-गृहस्थ की पहचान ( लिंग ) संवेगरंगशाला में सर्वप्रथम आराधना के योग्य कौन-कौन हैं, इसका उल्लेख करने के पश्चात् उस आराधक के लिंग, अर्थात् वेशभूषा को बताया गया है। प्रस्तुत कृति के लिंगद्वार में साधु एवं गृहस्थ- दोनों के लिंगों के उल्लेख मिलते हैं। संवेगरंगशाला में यह बताया गया है कि “निश्चय से इहलोक और परलोक को साधने वाला जिनकथित लिंग, जो पूर्व में अर्हताद्वार में कहा गया है, उसमें रहकर संवेग या वैराग्य भाव की वृद्धि करते हुए साधना करना ही योग्य - जीव की आराधना का लिंग (द्वार ) है । ' ,,128 आराधक-गृहस्थ का सामान्य लक्षण ( लिंग ) : संवेगरंगशाला में आराधक - गृहस्थ किन-किन लक्षणों, अर्थात् लिंगों से पहचाने जा सकते हैं, इसका उल्लेख निम्न रूप से किया गया है गृहस्थ- आराधक को शस्त्र, मूसल आदि उपकरणों का त्याग 9. करना चाहिए। २. ३. ४. : देह पर चन्दनादि सभी विलेपनों का त्याग करना चाहिए। लज्जा ढकने के लिए अल्प वस्त्र रखना चाहिए। एकान्तस्थान में रहकर स्वाध्याय, सामायिकादि क्रियाएँ करना चाहिए। ५. पौषध में इन्द्रियविषय-सुख एवं संसार की वस्तुओं के प्रति राग का त्याग कर संसार की अनित्यता, अशरणता, आदि का चिन्तन करना चाहिए। ६. सचित्त अन्न और जल का त्याग करके परिमित प्रासुक भोजन एवं जल का सेवन करना चाहिए। Jain Education International. 125 संवेगरंगशाला, गाथा २७६० - २७७४ 126 दशाश्रुतस्कन्ध ६ / ११. 127 सेविण एवं कोई पव्वयइ तह गिही होई । तब्भावभेयओ च्चिय विसुद्धिसंकेसभेएणं - विंशतिका १०/१८. 128 संवेगरंगशाला, गाथा १२०० - १२०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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