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100 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
संवेगी गुण वाला एवं प्राप्त धन में संतोष करके पापारम्भ के निर्देश का भी त्याग करता है। आठवीं प्रतिमा में एक करण तीन योग से आरम्भ का त्याग करता है, जबकि नौवीं प्रतिमा में दो करण तीन योग से आरम्भ का त्याग होता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार इस प्रतिमा में अनुमति देने की छूट होती है। 125 १०. उद्विष्टवर्जन प्रतिमा :- इस प्रतिमा को स्वीकार करने वाला साधक क्षर से मुण्डन कराता है, किन्तु चोटी रखता है। स्वयं के निमित्त तैयार किए हुए आहार-पानी का त्याग करता है। निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान में तल्लीन रहता है। इस अवस्था में गृहस्थ-उपासक से कोई पारिवारिक-समस्या की बात पूछता है, तो वह जानता है, तो कहता है, अन्यथा मौन रहता है, साथ ही वह ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करता है, जिससे किसी को हानि हो। वह भाषा का पूर्ण विवेक रखता है। 124 ११. श्रमणभूत-प्रतिमा :- संवेगरंगशाला में यह प्रतिपादित किया गया है कि इस प्रतिमा को धारण करने वाले उपासक की समस्त चर्या साधु के समान होती है। इसमें प्रतिमाधारी उपासक क्षुरकर्म से मस्तक का मुण्डन, अथवा केशलूंचन करके रजोहरण आदि उपकरणों को धारण करता है। उसकी वेशभूषा भी निर्ग्रन्थ की भांति होती है।
इस तरह प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक श्रमण सदृश जीवन-यापन करता है। वह श्रमण के समान निर्दोष भिक्षा, प्रतिलेखन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, समाधि, आदि में लीन रहता है। सभी प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करता है। पंच समिति एवं त्रिगुप्ति का परिपालन करते हुए जब वह किसी गृहस्थ के घर पर भिक्षा के लिए जाता है, तब वह कहता है - "प्रतिमाधारी श्रमणोपासक को भिक्षा दो।"
तात्पर्य यह है कि श्रमण एवं श्रमणोपासक का वेश एकसदृश होने से कहीं श्रमणोपासक को श्रमण न समझ लिया जाए, इसलिए वह स्पष्टीकरण करता है। दूसरी बात यह है कि यदि उसे कोई मुनि समझकर वन्दन करता है, तो वह स्पष्ट शब्दों में कह देता है- "मैं प्रतिमाधारी श्रमणोपासक हूँ, आहार आदि के लिए आया हूँ।" इस तरह ग्यारहवीं प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक उत्कृष्ट से ग्यारह महीने तक इसी प्रकार विचरण करता है, किन्तु जघन्य से एक दिन, दो दिन, आदि इच्छानुसार काल तक भी इसका पालन कर सकता है।
123 संवेगरंगशाला, गाथा २७६२ - २७६३. 124 संवेगरंगशाला, गाथा २७६४ - २७६५.
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