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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 99 देहासक्ति का त्याग कर कायोत्सर्ग करना । वस्तुतः इस प्रतिमा में कामासक्ति, भोगासक्ति, अथवा देहासक्ति कम करने का प्रयास किया जाता है। 119 ६. अब्रह्मवर्जन - प्रतिमा :- इस प्रतिमा में साधक रात्रि में भी मन, वचन और काया से ब्रह्मचर्य का पूर्णतया पालन करता है। इसमें वह पूर्ण जितेन्द्रिय बन जाता है । वह इन्द्रिय के विषय विकारों में आसक्त नहीं होता है। विकास की इस कक्षा में मैथुन से सर्वथा विरत होकर ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार निवृत्ति की दिशा में एक और चरण आगे बढ़ाता है। इस प्रतिमा में वह ब्रह्मचर्य की रक्षा के निमित्त - १. स्त्री के साथ एकान्त का सेवन नहीं करता है २. स्त्री-वर्ग से अति परिचय नहीं रखता है ३. श्रृंगार नहीं करता है ४. स्त्री- जाति के रूप-सौन्दर्य सम्बन्धी तथा कामवर्द्धक वार्त्तालाप नहीं करता है और ५. स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठता है। 120 ७. सचित्तत्याग - प्रतिमा :- पूर्वोक्त प्रतिमाओं के नियमों का यथावत् पालन करते हुए अप्रमत्त साधक आसक्ति के त्यागपूर्वक सातवीं प्रतिमा में सचित्त आहार का त्याग करता है। वह उष्ण जल एवं अचित्त आहार का ही सेवन करता है। आहार प्रत्येक जीवात्मा को आवश्यक है, परन्तु जो भक्ष्य व अचित्त हो, वही प्रस्तुत प्रतिमाधारी श्रावक ग्रहण कर सकता है। सचित्त, अर्थात् हरी वनस्पति, सब्जी, फल, गुठलीयुक्त आम, गुठलीयुक्त पिण्डखजूर, आदि। 121 ८. आरम्भवर्जन-प्रतिमा :- साधना की इस भूमिका में आते ही साधक पूर्व साधना के साथ आजीविका के लिए स्वयं व्यवसाय ( सावद्य आरम्भ ) नहीं करता है, फिर भी वह पुत्र, नौकरादि को यथावसर व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में मार्गदर्शन करता रहता है । इस प्रकार वह सभी प्रकार के सावद्य आरम्भ यानी हिंसात्मक क्रियाओं का त्याग करता है। प्रस्तुत प्रतिमा में मन, वचन और काया से हिंसा से बचा जाता है। 122 ६. प्रेष्यवर्जन - प्रतिमा :- इसमें पूर्वोक्त प्रतिमाओं का पालन करते हुए साधक पुत्र पर घर का भार छोड़कर लोक व्यवहार से भी मुक्त होकर श्रावक परम 119 संवेगरंगशाला, गाथा २७५५-२७५७. 120 संवेगरंगशाला, गाथा २७५८-२७६०. 121 सत्तम पिडिमाए पुणो, सचित्तमाऽऽहारमेस परिहरइ । पुव्वोइयगुणजुतो, अपमत्तो सत जा मासा ।। संवेगरंगशाला, गाथा २७६०. 122 आरम्भमऽट्ठमीए, सावज्जं कारवेई पेसेहिं । पुव्ववतं न सयं वित्तिकए अटूठ जा मासा ।। संवेगरंगशाला, गाथा २७६१. Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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