________________
98 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
५. असंगताएँ - शत्रु-मित्र एवं सुख-दुःख में समभाव रखना ही असंगता है।
___ वस्तुतः, साधक इन पाँच गुणों से युक्त होकर सामायिक करता है, तो उत्कृष्ट सामायिक कहलाती है, किन्तु मात्र उदासीनता गुण से युक्त होने पर भी श्रावक की सामायिक श्रेष्ठ मानी जाती है। इस तरह तीसरी प्रतिमा में गृहस्थ सामायिक-प्रतिमा का सम्यक् पालन करता है तथा दुष्प्रणिधान आदि अतिचारों का त्याग करता है। इसमें साधक को मात्र त्याग ही करना नहीं है, वरन् कुछ पाना भी होता है, अर्थात् समभाव प्राप्त करने को ही सामायिक कहते हैं।' ४. पौषध-प्रतिमा :- प्रस्तुत प्रतिमा में मास में चार या छः दिन प्रतिपूर्ण पौषध करने का विधान है। इसमें पूर्व प्रतिमाओं का आचरणपूर्वक उपासक अष्टमी, चतुर्दशी के दिन पौषध स्वीकार करता है तथा अप्रतिलेखन, दुष्प्रतिलेखन, शय्या-संस्तारक एवं उच्चारप्रसवण-भूमि आदि अतिचारों का त्याग करता है।''
पौषधोपवास-निवत्ति की दिशा में बढ़ा हआ एक और चरण है। यह एक दिवस का श्रमणत्व ही है। यह गृहस्थ के विकास की चौथी भूमिका है, जिसमें प्रवृत्तिमय जीवन में रहते हुए भी अवकाश के दिनों में निवृत्ति का आनन्द लिया जाता है।
___ दशाश्रुतस्कन्ध 117 एवं श्रमणसूत्र18 में स्पष्ट वर्णन है कि पौषध प्रतिमा में साधक पूर्व की तीन प्रतिमाओं का पालनपूर्वक पर्वो के दिनों में, अर्थात् दो अष्टमी और दो चतुर्दशी को निरतिचारपूर्वक पौषध करते हैं। ५. प्रतिमा-प्रतिमा :- इसे कायोत्सर्ग एवं दिवामैथुनविरत-प्रतिमा भी कहते हैं। इसमें पूर्वोक्त प्रतिमाओं का निर्दोष पालन करते हुए पाँच विशेष नियम लिए जाते हैं:- १. स्नान नहीं करना २. रात्रिभोजन नहीं करना ३. धोती की एक लांग नहीं लगाना ४. दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करना और ५. रात्रि में मैथुन की मर्यादा निश्चित करना तथा पर्यों के दिन पौषध हो, तब रात्रि में भी सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना। इसी प्रकार अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों में रात्रि-पर्यन्त
115 संवेगरंगशाला, गाथा २७४०-२७५२. 116 संवेगरंगशाला, गाथा, २७५३-२७५४. 117 दशाश्रुतस्कन्ध ६/४. 118 श्री माहेन्द्र श्रमण सूत्र सार्थ, पृ. ८३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org