________________
जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 97
और उपसगों को सहन करने वाला मिथ्यादृष्टि जीव भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है।112
२. व्रत-प्रतिमा :- दर्शन-विशुद्धि के पश्चात् जब उपासक आगे बढ़ता है, तो उसे पाँच अणुव्रतों का आंशिक रूप में पालन करना होता है। संवेगरंगशाला के अनुसार गृहस्थ-जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन पाँच अणुव्रतों का निर्दोष रूप से पालन करना ही व्रत-प्रतिमा है। इस व्रत-प्रतिमा में साधक अणुद्रतों के अतिचारों से निवृत एवं सुविचारों में प्रवृत्त होकर सदैव शुभ अध्यवसायों में विचरण करता है। सम्यक्त्वादि गुणों से युक्त होकर साधक व्रत-प्रतिमा में नैतिक आचरण की दिशा में आंशिक प्रयास प्रारम्भ करता है।
__ व्रत-प्रतिमा के सम्बन्ध में कहीं पाँच अणुव्रतों का, तो कहीं बारह व्रतों का उल्लेख मिलता है। श्रमणसूत्र के अनुसार श्रावक इस प्रतिमा में पहली प्रतिमा का सम्यक् पालन करते हुए अतिचाररहित अणुव्रतों, अर्थात् श्रावक के व्रतों का भी पालन करता है। ३. सामायिक-प्रतिमा :- इसमें साधक अपने अपूर्व बल, वीर्य, उल्लास से पूर्व प्रतिमाओं का तो सम्यक् प्रकार से पालन करता ही है, साथ ही दिन में अनेक बार सामायिक की साधना करता है एवं देशावकाशिक-व्रत का भी पालन करता है। संवेगरंगशाला में सामायिक के पाँच गुण कहे गए हैं, वे निम्न हैं - १. उदासीनता, २. माध्यस्थ-भाव ३. संक्लेश की विशुद्धि ४. अनाकूलता और ५. असंगता।
१. उदासीनता - विरस आहार पानी एवं प्रतिकूल शय्या में भी चित्त की धैर्यता ही उदासीनता है, यह सामायिक का मुख्य अंग है।
२. माध्यस्थ - अपने पराए की भावना से हटकर विश्व-कुटुम्ब की भावना को माध्यस्थ कहते हैं।
३. संक्लेश की विशुद्धि - प्रत्येक परिस्थिति में, अर्थात किसी के दोषों को देखकर भी क्रोध (क्लेश) नहीं करना ही संक्लेश-विशुद्धि है।
४. अनाकूलता - सोते, उठते, बैठते समय हर्ष-विषाद का अभाव ही अनाकूलता है।
112 संवेगरंगशाला, गाथा २७१३-२७१६. 113 संवेगरंगशाला, गाथा २७३६-२७३६. 114 श्री माहेन्द्र श्रमणसूत्र सार्थ, पृ. ८३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org