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________________ 96/ साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री दिगम्बर-परम्परा में चारित्रप्राभृत, १०७ रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १० वसुनन्दिश्रावकाचार,०६ सागारधर्मामृत, आदि ग्रन्थों में श्रावक की ग्यारह श्रेणियों का उल्लेख मिलता है, वे इस प्रकार हैं :- १. दर्शन २. व्रत ३. सामायिक ४. पौषध ५. सचित्त-त्याग ६. रात्रि-भोजन एवं दिवामैथुन-विरति ७. ब्रह्मचर्य ८. आरम्भ-त्याग ६. परिग्रह-त्याग १०. अनुमति-त्याग और ११. उद्दिष्ट-त्याग। इस तरह दोनों परम्पराओं में उपासक-प्रतिमाओं के नाम एवं क्रम में कुछ साम्य एवं कुछ अन्तर दृष्टिगत होता है, किन्तु दिगम्बर-आचार्यों में इनकी संख्या के सम्बन्ध में भी कुछ मतभेद हैं। स्वामी कार्तिकेय ने इनकी संख्या १२ मानी है। इसी प्रकार दोनों परम्पराओं में और भी महत्वपूर्ण अन्तर प्राप्त होते हैं, जिनका विवेचन डॉ. सागरमल जैन ने अपनी पुस्तक “जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार-दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन" में विस्तार से किया है।11 १. दर्शन-प्रतिमा :- साधक को अध्यात्ममार्ग की यथार्थता के सम्बन्ध में दृढ़ निष्ठा एवं श्रद्धा होना ही दर्शन-प्रतिमा है। दर्शन का अर्थ ही दृष्टिकोण की विशुद्धता है। दृष्टिकोण की विशुद्धता कषाय की मन्दता बिना नहीं होती, अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषायों पर विजय प्राप्त करने से दर्शन की विशुद्धि होती है और तब ही हमारी प्रज्ञा सम्यक रूप से कार्य कर सकती है। यह प्रतिमा सम्यग्दर्शन की सुदृढ़ नींव पर अवस्थित है, जिसके आधार पर ही व्रतों का भव्य भवन खड़ा होता है। इस प्रतिमा में साधक क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चारों कषायों की तीव्रता को कम करके सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। यह गृहस्थ-धर्म की पहली भूमिका है। शुभ और अशुभ, अथवा धर्म और अधर्म के मध्य यथार्थ विवेक ही दर्शन या दृष्टिकोण की विशुद्धि का तात्पर्य है। इस अवस्था में शुभ एवं अशुभ का सही ज्ञान होता है, लेकिन उसके अनुसार आचरण करना उसके लिए जरूरी नहीं होता है। संवेगरंगशाला के अनुसार वही पण्डित पुरुष है, जो सम्यक्त्व का निरतिचारपूर्वक पालन करता है। सम्यक्त्व ही गुणों का मूल है। इसके बिना की गई क्रिया ईख के पुष्प के समान निष्फल है। क्रिया करने वाला सत्त्वशाली अन्धा व्यक्ति जैसे शत्रु को जीत नहीं सकता है, वैसे ही पाप कार्यों से निवृत्त परीषहों चारित्रपाभृत, गाथा २१-२२. 108 रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १३७-१४७. 109 वसनन्दिश्रावकाचार - ४. सागारधर्मामृत, गाथा १७, पृ. ३२. वसुनन्दिश्रावकाचार की भूमिका, पृ. ५०, उद्धृत जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग २, पृ. ३१८-३१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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