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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 95 को श्रावक व्रतों का हार्द हृदयंगम हो सके। प्राचीन जैन मूर्द्धन्य मनीषी आचार्यों ने बहुत विस्तार से श्रावक व्रत के सम्बन्ध में विश्लेषण किया है। विशेष जिज्ञासुओं को वे ग्रन्थ अवश्य देखना चाहिए । श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएँ : जैनधर्म-दर्शन में आराधना का महत्वपूर्ण स्थान है। जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है। जैन - विचारणा में गृहस्थ जीवन के आध्यात्मिक विकास का सुन्दर चित्रण श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं के रूप मे उपलब्ध होता है। प्रतिमा का अर्थ प्रतिज्ञाविशेष है। नैतिक विकास के प्रत्येक चरण पर साधक द्वारा प्रकट किया हुआ दृढ़ निश्चय ही प्रतिमा कहा जाता है। श्रावक - प्रतिमाएँ गृही - जीवन में की जाने वाली साधना की विकासोन्मुख श्रेणियाँ हैं, जिन पर क्रमशः चढ़ता हुआ साधक अपनी आध्यात्मिक प्रगति कर जीवन के परमादर्श 'स्वस्वरूप' को प्राप्त कर लेता है। श्रावक की ग्यारह श्रेणियाँ हैं, जो साधक के उत्तरोत्तर नैतिक या आध्यत्मिक-विकास लिए हुए हैं। इसमें साधक पूर्व-पूर्व की भूमिकाओं से उत्तरोत्तर भूमिकाओं में प्रवेश करता जाता है। जैसे ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश करने वाले विद्यार्थी में दसवीं कक्षा की योग्यता होनी चाहिए, वैसे ही उत्तर - उत्तर की प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व के गुण समाविष्ट रहते हैं। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर- दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में उपासक की एकादश प्रतिमाओं का वर्णन प्राप्त होता है। . १०२ १०३ १०४ श्वेताम्बर - परम्परा में - १. उपासकदशांगसूत्र २. समवायांगसूत्र ३. दशाश्रुतस्कन्ध ४. पंचाशकप्रकरण, आदि ग्रन्थों में उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं की चर्चा की गई है। संवेगरंगशाला के अनुसार प्रतिमा का अर्थ व्रतविशेष या प्रतिज्ञाविशेष है। इसमें साधक श्रमण के सदृश विशेष व्रतों का पालन करता है। इस ग्रन्थ में मोह एवं राग के निवारण हेतु ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है, वे निम्नानुसार हैं:- १. दर्शनप्रतिमा २. व्रतप्रतिमा ३. सामायिकप्रतिमा ४. पौषधप्रतिमा ५ प्रतिमाप्रतिमा ६ अब्रह्मवर्जनप्रतिमा ७. सचित्तत्यागप्रतिमा ८. आरम्भवर्जनप्रतिमा ६. प्रेष्यवर्जनप्रतिमा १०. उद्दिष्टवर्जनप्रतिमा और ११. श्रमणभूतप्रतिमा । १०६ १०५ 102 उपासकदर्शाांगसूत्र १/६८, पृ. ११५-१२१ ( हिन्दी टीका ) | 103 समवायांगसूत्र ११ / १. 104 दशाश्रुतस्कन्ध, पृ. ४०-४६. 105 पंचाशकप्रकरण- १८/१०. संवेगरंगशाला, गाथा २६७७. 106 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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