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94 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री
१२. अतिथिसंविभाग व्रत :- अतिथि का अर्थ है- जिसके आने की कोई तिथि, दिन या समय नियत नहीं है। जो बिना सूचना के अनायास आ जाता है, वह अतिथि है। उस अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग है। इस दृष्टि से मुख्यतया साधु-साध्वी को ही अतिथि कहा जाता है, किन्तु श्रावकप्रज्ञप्ति में श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका- इन चारों को अतिथि कहा गया है। इस व्रत में चारों बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- विधि, द्रव्य, दाता एवं पात्र। जो दान इन चार विशेषताओं से युक्त है, वही श्रेष्ठ सुपात्र दान है। प्रस्तुत व्रत का उद्देश्य गृहस्थ में सेवा और दान की वृत्ति को जाग्रत करना है।
प्रस्तुत व्रत में यह फलित होता है कि गृहस्थ को अपने परिजनों की सेवा के साथ-साथ समाज व जिन-शासन का दायित्व भी सम्भालना होता है, यह व्रत गृहस्थ साधक को अपने दायित्व का बोध देता है कि उसे दीन-दुःखियों का यथोचित सत्कार करना चाहिए। अतिथिसंविभाग के पाँच अतिचार :
१. सचित्त-निक्षेपण - दान न देने की भावना से अचित्त वस्तु में सचित्त वस्तु का संम्मिश्रण कर देना।
२. सचित्तापिधान - अचित्त पदार्थ, जो श्रमण के ग्रहण करने योग्य है, उस पर सचित्त पदार्थ ढक देना।
३. कालातिक्रम - श्रमण की भिक्षा का समय व्यतीत हो जाने पर भोजन तैयार करना।
४. परव्यपदेश - न देने की इच्छा से या कृपणता के कारण अपनी वस्तु को दूसरे की बताना।।
५. मात्सर्य - ईर्ष्या व अहंकार की भावना से दान देना। __ इन अतिचारों में लोभवृत्ति, अहंकार, ईर्ष्या, और द्वेषवृत्ति रही हुई है, जिससे श्रावक का व्रत दूषित या भंग होता है। श्रावक को अत्यन्त उदार होना चाहिए। कोई भी अतिथि उसके द्वार से निराश और हताश होकर न लौटे, यह उसे ध्यान रखना चाहिए।
उपर्युक्त व्रत विवेचन में बहुत ही संक्षेप में व्रतों के स्वरूप, महत्व एवं उसमें लगने वाले दोषों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है, जिससे प्रबुद्ध पाठकों
101 अभिधानराजेन्द्रकोश, भाग-७, पृ. ८१२
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