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________________ 106 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री वचन और शरीर की प्रवृत्तियों को कैसे नियन्त्रित किया जाए, इसके सन्दर्भ में हमें आचार्य जिनचन्द्र की संवेगरंगशाला में स्पष्ट निर्देश प्राप्त होता है। इसी क्रम में मुनि - जीवन की आराधना के लिए आधारभूत क्षमा आदि दस धर्मों का उल्लेख चाहे संवेगरंगशाला में एक स्थान पर विस्तृत रूप में उपलब्ध न हो, किन्तु आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने प्रकीर्ण सन्दर्भों में और विभिन्न कथानकों के माध्यम से क्षमा आदि धर्मों का उल्लेख भी किया है। मुनि - आचार के विवेचन के सन्दर्भ में संवेगरंगशाला का वैशिष्ट्य यह है कि वह सामान्य सिद्धान्तों की चर्चा की अपेक्षा मुनि की दैनिक दिनचर्या के विवेचन पर अधिक बल देती है। इस क्रम में यह दसविध समाचारी का उल्लेख करती है, साथ ही प्रतिलेखना, प्रमार्जना, आलोचना आदि की क्रियाओं पर अधिक बल देती है। मुनिधर्म की चर्चा करते हुए इसमें विनय पर भी विशेष बल दिया गया है। जिनचन्द्रसूरि ने प्रथम परिकर्मद्वार के चतुर्थ उपद्वार में विनय का विस्तृत विवेचन किया है। मुनि किसी एक स्थानविशेष पर प्रतिबद्ध होकर नहीं रहता है। राग के प्रहाण के लिए यह आवश्यक है। इस सन्दर्भ में जिनचन्द्रसूरि ने संवेगरंगशाला में मुनि के लिए स्थिरवास का निषेध कर अप्रतिबद्धविहारी होने का उल्लेख किया है। समाधिमरण की विशेष आराधना के प्रसंग में संवेगरंगशाला में तीन स्थानों पर तप का विवरण भी हमें उपलब्ध होता है। प्रथमतः, गाथा क्रमांक ६१३ से ६२२ तक तप के सामान्य स्वरूप और उपयोगिता की चर्चा की गई है । पुनः, प्रथम परिकर्म के ही संलेखना - प्रतिद्वार में भी गाथा क्रमांक ४०१८ से लेकर ४०७३ तक छः प्रकार के बाह्य- तपों का विस्तार से उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार चौथे समाधिलाभ नामक द्वार के प्रथम अनुशास्ति नामक उपद्वार के सत्तरहवें तप नामक प्रतिद्वार में पुनः तप का संक्षिप्त उल्लेख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संवेगरंगशाला में जैन मुनि के सामान्य आचार का विवेचन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत उपलब्ध होता है। अग्रिम पंक्तियों में हम मुनि - आचार के इस स्वरूप का निर्देश निम्न क्रम से करेंगे - १. पंच महाव्रत और रात्रिभोजन - त्याग २. पंच समिति और तीन गुप्ति ३. दस प्रकार के यतिधर्म ५. बाईस परीषह ६. बारह प्रकार के तप ८. षडावश्यक और श्रमण जीवन का सामान्य स्वरूप : ७. दस प्रकार की सामाचारी ६. मुनि के दैनिक - कर्त्तव्य । जीवमात्र का एक ही लक्ष्य है- दुःख से मुक्त होना, सुख और शान्ति को प्राप्त करना, इसलिए जैन विचारकों ने जीव व जगत् के स्वरूप का चिन्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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