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जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 85
करते हुए लिखा है- “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा”, प्रमत्तयोग से प्राणों का व्यपरोपण करना हिंसा है। मन-वचन और काया की प्रमादयुक्त प्रवृत्ति हिंसा है।89
जैनशास्त्रों के अन्तर्गत दस प्रकार के प्राणों का उल्लेख हैं- पाँच इन्द्रिय, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास और आयु। इनका व्यपरोपण आघात और प्रतिबन्ध द्वारा दो प्रकार से होता है। दूसरों को ऐसी चोंट पहुँचाना, जिससे दिखाई देना या सुनना बन्द हो जाए, 'आघात' है। दूसरों को देखने और सुनने से रोकना, उत्तकी स्वतन्त्र प्रवृत्तियों में बाधा उपस्थित करना 'प्रतिबन्ध' है।
हिंसा दो प्रकार की है- स्थावर जीवों की हिंसा सूक्ष्म हिंसा है एवं त्रसजीवों की हिंसा स्थूल हिंसा है। श्रावक को सूक्ष्म हिंसा का व्रत (त्याग) नहीं होता है। वह केवल त्रसजीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करता है। इस प्रकार श्रावक के अहिंसाव्रत में दो आगार (अपवाद) हैं- प्रथम अपराधी को दण्ड देने का एवं दूसरा जीवन निर्वाह के लिए सूक्ष्म हिंसा का। इन्हीं आगार के आधार से श्रावक को सागारी कहा जाता है एवं आगारों का अभाव होने से साधु को अणगार कहा है।
उपासकदशासूत्र एवं स्थानांगसूत्र में गृहस्थ के प्रथम अहिंसा अणुव्रत को “स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत" कहा है। श्रावक तीन योग व दो करण से हिंसा का त्यागी होता है। विवेकपूर्ण सावधानी रखने पर भी यदि किसी प्राणी की हिंसा हो जाएं, तो श्रावक का अहिंसा व्रत भंग नहीं होता।
जैन-आचार्यों ने हिंसा के संकल्पजा, आरम्भजा, उद्योगिनी और विरोधिनी - ये चार भेद किए हैं। श्रावक इन चार हिंसाओं में से संकल्पजा-हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग करता है, शेष तीन हिंसाओं को वह चाहते हुए भी त्याग नहीं सकता है, किन्तु उनकी मर्यादा कर सकता है। संवेगरंगशाला में भी छ: काय जीवों की विराधना से व्रतभंग हुआ हो, तो आलोचना लेने का वर्णन है। अहिंसा व्रत के मुख्य पाँच अतिचार :
१. बन्धन :- प्राणियों को बन्धन में डालना। किसी को किसी प्रयोजन या हेतु से बाँधना अर्थबन्ध है, जैसे रुग्ण या पागल व्यक्ति को चिकित्सा आदि के लिए बाँधना। कलुषित भावना से बिना प्रयोजन बाँधना अनर्थबन्ध है, जो सर्वथा हिंसा है।
89 तत्वार्थसूत्र ७/८. १. 90 स्थानांगसूत्र ५/१/२.
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