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________________ 84 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजना श्री जैनधर्म में श्रावक एवं श्रमण- दोनों की साधना का विस्तार से निरूपण है। श्रावकधर्म को संयतासंयत, देशविरति और देशचारित्र कहा है। श्रावक गृहस्थाश्रम में रहकर गृहस्थ के कर्त्तव्यों का पालन करता हुआ अणुव्रतरूप एकदेशीय व्रतों का पालन करता है। साधक का एक ही लक्ष्य होता है- हिंसा आदि से बचने का । श्रमण और श्रावक - इसी प्रगति की दो कक्षाएँ हैं। साधु अहिंसादि व्रतों का पूर्ण रूप से पालन करता है, किन्तु गृहस्थ साधक अपनी मर्यादा निश्चित करता है । उस मर्यादा को संकुचित करना उसकी इच्छा पर निर्भर हैं, पर मर्यादा से अतिक्रमण करने पर अथवा उसका उल्लघंन करने पर व्रतभंग हो जाता है। इस प्रकार जिन दोषों से व्रत टूटने की सम्भावना बनी रहती है, उनका ही यहाँ विवेचन किया गया है। श्रावक को इन्हें जानना चाहिए, परन्तु इनका आचरण नहीं करना चाहिए, इन सम्भावित दोषों को ही अतिचार कहा गया है। जैन आगम साहित्य में व्रत के अतिक्रमण की चार कोटियाँ बनाई गई हैंअतिक्रम व्रत को उल्लंघन करने का मन में ज्ञात व अज्ञात रूप से विचार करना । १. २. व्यतिक्रम - व्रत का उल्लंघन करने के लिए प्रवृत्ति करना । अतिचार - व्रत का आंशिक रूप से उल्लंघन करना । अनाचार व्रत को पूर्ण रूप से खण्डित करना । ४. अनजाने में लगे दोषों को अतिचार एवं जान-बूझकर व्रत भंग करने को अनाचार कहते हैं। श्रावक इन चार दोषों से अपने व्रतों की रक्षा करता है । श्रावक के बारह व्रत : २. सत्य- - अणुव्रत ३. अचौर्य - अणुव्रत ५. परिग्रह - परिमाण - व्रत ६. दिक्-परिमाण - व्रत ७. उपभोग - परिमाण - व्रत ८. अनर्थदण्ड - विरमण - व्रत ६. सामायिक - व्रत १०. देशावकासिक - व्रत ११. पौषधोपवास- व्रत एवं १२. अतिथि- संविभाग- व्रत । १. अहिंसा - अणुव्रत :- जैनधर्म और दर्शन का विकास अहिंसा के आधार पर हुआ है। अहिंसा जैनधर्म का प्राण है। आचार्य उमास्वाति ने हिंसा की परिभाषा १. अहिंसा - अणुव्रत ४. स्वपत्नी - संतोषव्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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