SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 82 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री और दोनों ही उद्धार कराने में असमर्थ हों, तो साधारण द्रव्य लेकर भी उस पौषधशाला का उद्धार करवाए । इस तरह जो पौषधशाला का उद्धार कराता है, वह धन्य पुरुष दूसरों की सत्प्रवृत्तियों का कारणभूत बनता है। पौषधशाला में श्रावकवर्ग सामायिक आदि क्रिया संवेगपूर्वक करते हैं तथा ध्यान, स्वाध्याय, आदि करते हुए बोधिबीज को प्राप्त करते हैं; इससे तीर्थ की प्रभावना, गुणानुरागी को गुण की प्राप्ति, धर्म की रक्षा, अभयदान की घोषणा, आदि का लाभ पौषधशाला का उद्धार करानेवाले को मिलता है, क्योंकि वहाँ जो प्रतिबोध प्राप्त करेंगे, वे अवश्य मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। इस कारण पौषधशाला उद्धार कराने में भी भविष्य में होने वाली हिंसा से अन्य जीवों का रक्षण होता है। यद्यपि उपासकदशांग में ऐसा उल्लेख मिलता है कि सिंह, आनन्द, आदि प्रत्येक श्रावक के घर में पौषधशालाएँ होती थीं, किन्तु अनेक के बीच, अर्थात् एक संघ में एक पौषधशाला होने से दोष नहीं है, क्योंकि एक पौषधशाला में परस्पर मिलकर धर्मक्रिया करने से तथा विनयादि आचरण करने से विशेष लाभ प्राप्त होते हैं, जैसे- परस्पर विनय करना, सारणा - वारणादि करना, धर्मकथा, वाचना, पृच्छना, आदिरूप स्वाध्याय करना, धर्मबन्धुजनों की सुख साता पूछना, सूत्र - अर्थ एवं तदुभय का परस्पर पूछना, सुनना, नई-पुरानी सामाचारी को समझना, आदि अनेक लाभ पौषधशाला में धर्मानुष्ठान करने से होते हैं। व्यवहारसूत्र में राजपुत्रादि को भी पौषधशाला में धर्मप्रसंग आदि करने के उल्लेख हैं, अतः उत्तम श्रावकों को भी सद्धर्म करने के लिए निश्चय से सर्वसाधारण के लिए एक पौषधशाला. बनाना योग्य है। १०. जैनधर्म की प्रभावना :- श्रावक को अपने अर्जित द्रव्य का किन-किन कार्यों में व्यय करना चाहिए, इसका उल्लेख करते हुए जिनचन्द्रसूरि ने जो दस स्थान बताएं हैं, उनमें दसवाँ स्थान दर्शनकार्य का है। दर्शनकार्य का तात्पर्य जैनदर्शन की प्रभावना और उसके ऊपर आई विपत्तियों के निराकरण में अपने स्वद्रव्य का व्यय करने से है। उन्होंने सर्वप्रथम दर्शनकार्य को दो भागों में विभाजित किया १. प्रशस्त और २. अप्रशस्त । जिनसे जैनदर्शन की कीर्ति धूमिल होती हों, वे सभी कार्य अप्रशस्त दर्शनकार्य हैं और जिनके माध्यम से जैनदर्शन की महत्ता संसार में वृद्धि को प्राप्त होती है, वे प्रशस्त दर्शनकार्य हैं। आचार्य जिनचन्द्रसूरि कहते हैं कि जिसके करने से इस लोक में कीर्ति और परलोक में सद्गति की प्राप्ति हो, वही प्रशस्त दर्शनकार्य है । सामान्य रूप से जिनके द्वारा चैत्य (जिनमन्दिर) कुल, गण, चतुर्विधसंघ, आचार्य, प्रवचन और श्रुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy