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________________ जैन धर्म में आराधना का स्वरूप / 81 वाला हो, विनयगुण से सम्पन्न हो तथा धन का सद्व्यय करनेवाला हो, तो श्रावक को ऐसे साधर्मिक भाई की सहायता करना चाहिए | श्रावक पहले अपने धन से उसकी आजीविका सम्बन्धी व्यवस्था करे, अथवा स्वधन के अभाव में साधारण द्रव्य से भी व्यापार के लिए उसे पूंजी दे। यदि वह व्यापार कला में अकुशल हो, तो उसे उसकी आवश्यकता से आधा या चौथा भाग आदि आजीविका के लिए दे । इनसे विपरीत गुणवाले साधर्मिक की सेवा करने से लोगों में स्वयं की तथा शासन की निन्दा होने की सम्भावना होती है। ८. श्राविकाओं की सेवा :- संवेगरंगशाला में श्रावकद्वार की तरह ही श्राविका-द्वार का भी निर्देश किया गया है। साध्वीद्वार में साध्वी की सुरक्षा हेतु श्रावक का जो कर्त्तव्य होता है, वही कर्त्तव्य यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इसी प्रसंग पर यहाँ साधर्मिक के प्रति श्रावक का कैसा व्यवहार होना चाहिए, उसका वर्णन भी किया गया है श्रावक को स्वजन - परजन, अथवा स्वजाति, कुल का भेदभाव छोड़कर अपने साथ में धर्मक्रिया करनेवालों को, ये मेरे धर्मबन्धु ऐसा मानना चाहिए तथा धार्मिक अनुष्ठानों, पुत्र-जन्मोत्सव, विवाहोत्सव, आदि में उनको स्मरणपूर्वक आमन्त्रित करना चाहिए। उनके प्रति 'स्वामीवात्सल्य भाव रखे, उनको देखते ही मधुर वार्तालाप से सकुशल आदि पूछे, पश्चात् सुपारी आदि देकर सत्कार करे, इस प्रकार रोग आदि में औषध देकर सेवा करे, अंगमर्दन करे, विश्रान्ति दे, उनके सुख में अपने को सुखी माने तथा उनके दुःख में स्वयं को दुःखी माने। उनके गुणों की प्रशंसा करे, कमजोर परिस्थिति हो, तो व्यापार में जोड़े, धर्मकार्य में स्मरण करे, दोषों का सेवन करते हों, तो मधुर वचनों से समझाए, नहीं मानने पर कठोर वचनों से भी बारम्बार सत्कार्य करने की प्रेरणा दे एवं ज्ञान - दर्शन - चारित्र में सम्यक् रूप से स्थिर करे। इस तरह अनेक प्रकार से साधर्मिकवात्सल्य करने से श्रावक अवश्यमेव इस जगत् में जिनशासन की वृद्धि या प्रभावना करने वाला होता है, इसलिए श्रावक को यथाशक्ति साधर्मिकवात्सल्य करने के लिए प्रवृत्ति करना चाहिए । 36 - ६. पौषधशाला-निर्माण :- इसमें ग्रन्थकार का कहना है कि किसी समृद्धशाली गाँव, नगर, आदि में पौषधशाला जर्जरित हो गई हो एवं वहाँ के श्रावकवर्ग परम श्रद्धावन्त, पापभीरू एवं धर्मानुरागी हों, लाभान्तराय के कारण जीवन - गाड़ी मुश्किल से चलती हो, तब उन उत्तम सदाचारी पुरुषों की पौषधशाला के उद्धार करने की इच्छा होने पर भी असमर्थतावश उद्धार नहीं कर पाते हों, तो पहले श्रावक स्वयं समर्थ हो, तो स्वयं, अन्यथा उपदेश देकर अन्य के द्वारा उसका उद्धार कराए, Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
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