SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 80 / साध्वी श्री प्रियदिव्यांजनाश्री उत्पन्न नहीं होती है, फिर भी मुनि दूषित वस्तु का सेवन करता है, तो वह लेनेवाले एवं देनेवाले- दोनों के लिए अहितकर है, किन्तु संयमी-जीवन का निर्वाह करना दुष्कर हो गया हो, तब ऐसी वस्तु लेनेवाले एवं देनेवाले- दोनों के लिए हितकारी सिद्ध होती है। इन अपवाद की स्थितियों का उल्लेख करते हुए संवेगरंगशाला में कहा गया है कि जब दुष्काल पड़ गया हो, वस्त्र आदि को लुटेरे लूट कर ले गए हों तथा अन्य अपवादमार्ग में सर्वप्रयत्न करने पर भी निर्दोष वस्त्र, आसन, औषध, आदि की प्राप्ति न होती हो, तो श्रावक को स्वधन का सद्व्यय करते हुए साधु को वस्तु आदि खरीद कर देना चाहिए तथा आहार भी तैयार करके दान करना चाहिए। श्रावक भी स्वधन के अभाव में ही दूसरों को कहे तथा दूसरे भी शक्ति सम्पन्न न हों, तो ऐसे समय में साधारण द्रव्य का उपयोग लेकर भी साधु की सेवा करें। इसी तरह साधु को भी चाहिए कि वह इन दूषित आहार, वस्त्र, आदि को अनादरपूर्वक (उदासीनता से) स्वीकार करे। इस तरह जिनेश्वर भगवान ने एकान्तः कोई आज्ञा प्रदान नहीं की है और एकान्तः कोई निषेध भी नहीं किया है। उनकी आज्ञा के अनुसार प्रत्येक कार्य में सत्यता का पालन करना एवं माया नहीं करना है। इस ग्रन्थ में उत्सर्ग-मार्ग को राजमार्ग कहा है एवं अपवाद को उसका ही प्रतिपक्षी कहा है, क्योंकि जितने उत्सर्ग-मार्ग हैं, उतने ही अपवाद-मार्ग हैं, जितने अपवाद-मार्ग हैं, उतने ही उत्सर्ग-मार्ग हैं। ६. साध्वीवर्ग की सेवा :- संवेगरंगशाला के साधुद्वार में जिन बातों का उल्लेख किया गया है, उन्हीं बातों को साध्वी के विषय में भी समझना चाहिए, ऐसा ग्रन्थकार का उल्लेख है। इसमें साध्वियों को परिपक्व (पके हुए) एवं स्वादिष्ट फलों से भरे हुए बेर के वृक्ष के समान कहा है, क्योंकि वे नौ गुप्ति बाड़ द्वारा सुरक्षा कवच से घेरी हुई होने पर भी स्वभाव से ही सर्वभोग्य होती हैं, इसलिए श्रावक को सदैव साध्वियों की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना चाहिए। किसी शत्रु के द्वारा, अथवा दुराचारी पुरुष के द्वारा उन पर दुराचार किया जाता हो, तो सर्वप्रथम अपने द्रव्य से, अन्यथा दूसरे के द्रव्य से तथा इनके अभाव में साधारण द्रव्य का खर्च करके भी संयम में विघ्न उत्पन्न करने वाले निमित्तों का नाश करना चाहिए एवं संयम की रक्षा करना चाहिए। ७. श्रावकों की सेवा :- आराधक को साधर्मिक बन्धुओं की सेवा करना चाहिए। जिन धर्मानुरागी श्रावकों के पास आजीविका के लिए सम्पत्ति का अभाव है, किन्तु वह व्यापार में कुशल हो, सप्तदुर्व्यसनों से दूर रहता हो, दाक्षिण्य आदि श्रेष्ठ गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001677
Book TitleJain Dharma me Aradhana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadivyanjanashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Worship
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy